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________________ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ बंधे णटे संते पच्छा असंजदसम्माइट्ठिम्हि उदयवोच्छेदादो । एवं इंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणाणं पि वत्तव्यं, मिच्छाइट्टिम्हि बंधे फिट्टे संते पच्छा जहाकमेण सजोगिकेवलिअप्पमत्तसंजदेसु उदयवोच्छेदादा । मिच्छत्तस्स सोदएणेव बंधो। णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्विणामाओ परोदएणेव बझंति, सोदएण सगबंधस्स विरोहादो । णqसयवेद-एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणि सोदय-परोदएहि बझंति, उभयथा वि विरोहाभावाद।। मिच्छतं णिरयाउअं च णिरंतरबंधिणो, धुवबंधित्तादो अद्धाक्खएण बंधविणासाभावादो । अवसेससव्वपयडीओ सांतरं बझंति, तासिं पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो । चदुहि मूलपच्चएहि पंचवंचासणाणासमयउत्तरपच्चएहि दस अट्ठारसएगसमय जहण्णुक्कस्सपच्चएहि य मिच्छाइट्ठी एदाओ पयडीओ बंधइ । णवरि वेउब्बिय-वेउब्वियमिस्सओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चएहि विणा एगवंचासपच्चएहि णिरयाउअं बंधइ त्ति वत्तव्यं । एवं इनके उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार हुण्डसंस्थान और असंग्रातसृपाटिकासंहननका भी कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्याटष्टि गुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर पीछे यथाक्रमसे सयोगकेवली और अप्रमत्तसंयन गुणस्थानमें इनके उदयका व्युच्छेद होता है। मिथ्यात्वका स्वोदयसे ही बन्ध होता है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म परोदयसे ही बंधते हैं, क्योंकि, स्वोदयसे इनके अपने बन्धका विरोध है । नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, आताप. स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर स्वोदयपरोदयसे बंधते हैं, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है । मिथ्यात्व और नारकायु प्रकृतियां निरन्तर बंधनेवाली हैं, क्योंकि ध्रुवबन्धी होनेसे कालक्षयसे इनके बन्धविनाशका अभाव है। शेष सब प्रकृतियां सान्तर बंधती हैं, क्योंकि, उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकी सम्भावना है। चार मूल प्रत्ययोसे, पचवन नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा दश व अठारह एक समय सम्बन्धी जघन्य एवं उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे मिथ्यादृष्टि इन प्रकृतियोंको बांधता है। विशेष इतना है कि वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंके विना बह इक्यावन प्रत्ययोंसे नारकायुको बांधता है, ऐसा कहना चाहिये । इसी १ प्रतियु ' ताहिं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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