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________________ २, २९४ सम्मत्तमगणाए बंधसामित्त [३७३ चेव । उदयवोच्छेदो णस्थि, खीणकसायादिसु वि एदासिं पयडीणं उदयदसणादो । तेण उदयवोच्छेदादो बंधवोच्छेदो पुव्वं पच्छा वा होदि त्ति विचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो। पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचतराइयाणं सोदओ बंधो । जसकित्तीए असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। उच्चागोदस्स असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासजदेसु सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । जसकित्तीए असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा । णवरि असंजदसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ, पमत्तसंजदेसु आहारदुगपच्चओ णत्थि । असंजदसम्मादिट्ठीसु एदासिं पयडीणं बंधो देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरिमेसु गुणहाणेसु देवगइसंजुत्तो अगइसंजुत्तो वा । चउगइअसंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा सामीओ। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अदुवो, अद्भुवबंधित्तादो। रायका बन्धव्युच्छेद ही है । उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, क्षीणकषायादिक गुणस्थानों में भी इन प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है । इसी कारण उदयव्युच्छेदसे बन्धव्युच्छेद पूर्वमें या पश्चात् होता है, यह विचार नहीं है; क्योंकि, सत् और असत्की तुलनाका विरोध है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है। यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है। उच्चगोत्रका असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदयाभाव है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। यशकीर्तिका असंतयसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ऊपर प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका प्रत्यय सुगम है । विशेष इतना है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिकमिश्र प्रत्यय और प्रमत्तसंयतोंमें आहारकद्विक प्रत्यय नहीं हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें इन प्रकृतियोंका बन्ध देव व मनुष्य गतिसंयुक्त होता है। उपरिम गुणस्थानों में देवगतिसंयुक्त या अगतिसंयक्त बन्ध होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अधुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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