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________________ ३, २२९.] संजममग्गणाए बंधसामित्त [ २९९ सुगमं । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टिउवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २२९ ॥ एदासिं पयडीणमेत्थ बंधोदयवोच्छेदाभावादो ' उदयादो किं पुवं पच्छा वा बंधो वोच्छिण्णो ' त्ति विचारो णत्थि । पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोदपंचंतराइयाण सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । सादावेदणीय-लोभसंजलणाणं सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । सादावेदणीय-जसकित्तीणं पमत्तसंजदम्मि सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, तदभावादो । सेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ णिरंतरो, अप्पिदसंजदेसु बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । एदासिं सव्वपयडीणं पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुवकरणद्धाए छसतभागो ति बंधो देवगइसंजुत्तो । उवरि अगइसंजुत्तो, तत्थ गईणं बंधाभावादो। मणुसा सामी, अण्णत्थ संजदाभावादो। बंधद्धाणं यह सूत्र सुगम है। प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २२९॥ यहां इन प्रकृतियोंके बन्ध और उदयका व्युच्छेद न होनेसे ' उदयसे क्या पूर्वमें या पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है' यह विचार नहीं है। पांच झानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुव उदय है । सातावेदनीय और संज्वलनलोभका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। सातावेदनीय और यशकीर्तिका प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृति के बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका वन्ध सर्वत्र निरन्तर है, क्योंकि, विवक्षित संयत में इनके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघनत्ययोंसे यहां के.ई भेद नहीं है। इन सब प्रकृतियोंका बन्ध प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरणकालके छह सप्तम भाग तक देवगतिसे संयुक्त होता है। कार अगति संयुक्त वन्ध होना है. क्योंकि, वहां गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में संयनका अभाव है। १ प्रतिषु पाणुसाउत्र' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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