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________________ ३, २१५.] णाणमग्गणार बंधसामित [२९१ गइसंजुत्तो, अण्णगईहि सह विरोहादो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स चउगइअसंजदसम्माइट्ठी सामी । अवसेसाणं पयडीणं देव-णेरइया सामी । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि गुणहाणे भूओगुणट्ठाणजणियद्धाणविरोहादो । असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो वोच्छिज्जदि । अपच्चक्खाणचउक्कस्स तिविहो बंधो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो । पच्चक्खाणावरणचउक्कमेत्थ बेढाणियमसंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजददोगुणट्ठाणेसु समं चेव बंधुवलंभादो । बंधोदया समं वोच्छिण्णा, संजदासंजदम्मि तदुभयाभावदंसणादो । सोदय-परोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । संजदासंजदेसु देवगइसंजुत्तो । चउगइअसंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदासजदा सामी । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदो त्ति बंधद्धाणं । संजदासंजदम्मि बंधो वोच्छिज्जदि । दोसु वि गुणट्ठाणेसु तिविहो बंधो, धुवाभावादो। पुरिसवेद-चउसंजलण-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदओ बंधो। सांतर-णिरंतर होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ इनके बन्धका विरोध है। अप्रत्याख्यानचतुष्कके चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें बहुत गुणस्थान जनित अध्वानका विरोध है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । अप्रत्याख्यानचतुष्कका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उसके ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्क यहां द्विस्थानिक है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानोंमें समान ही बन्ध पाया जाता है । बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है। स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवोदयी है। निरन्तर बन्ध होता है,क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। प्रत्यय सुगम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त तथा संयतासंयतोंमें देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धाध्वान है । संयतासंयत गुणस्थानमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है। दोनों ही गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। पुरुषवेद, चार संज्वलन, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका स्वोदय-परोदय बन्ध १ प्रतिषु ' धुवोदयादो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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