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________________ २४४ ] छडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १७०. 1 मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर - णिरंतरो बंधा । कथं णिरंतरो ? ण, पम्म सुक्कलेस्सिएस तिरिक्ख- मणुस्से पुरिसवेदुच्चागोदाणं णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपडणं बंघाभावादो । सव्वगुणडाणाणमोघपच्चएस पुरिस - णवंसयवेदेसु अवणिदेसु अवसेसा एत्थ एदासिं पच्चया होंति । णवरि पमत्तसंजदेसु आहार - आहारमिस्सकाय जोगपच्चया अवणेदव्वा, इत्थवेदोदइल्लाणं तदसंभवादो । असंजदसम्मादिट्ठीसु ओरालिय- वेउग्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगपच्चया अवणेदव्वा, तत्थ असंजदसम्मादिडीणमपज्जत्तकालाभावादो | सेसं सुगमं । पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय चदुसंजलण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं । सासणसम्माइट्ठी तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टिणो देव- मणुसग संजुत्तं । उवरिमा देवगइ संजुत्तं अगइसंजुत्तं च बंधंति । सादावेदणीयपुरिसवेद-जसकित्तीओ मिच्छादिङि-सासणसम्मादिडिगो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्टि असंजद सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है । शंका निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि पद्म और शुक्ल लेड्यावाले तिर्यच व मनुष्यों में पुरुषवेद और उच्चगोत्रका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। I सब गुणस्थानोंके ओघप्रत्ययों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदको कम करदेने पर शेष यहां इन प्रकृतियोंके प्रत्यय होते हैं । विशेषता इतनी है कि प्रमत्तसंयतों में आहारक और आहारकमिश्र काययोगप्रत्ययों को कम करना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीवेदके उदय युक्त जीवों के वे दोनों प्रत्यय सम्भव नहीं हैं । असंयत सम्यग्दृष्टियों में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्तकालका अभाव है । शेष प्ररूपणा सुगम' है। 1 पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, तथा सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, सासादन सम्यग्दृष्टियों में नरकगतिके बन्धका अभाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति व मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं । उपरिम स्त्रीवेदी जीव देवगति से संयुक्त और गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद और यशकीर्तिको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्तः सम्यग्मिथ्यादृष्टि Jain Education International १ अतौ' पुरिसवेदु चागोदाणं पि ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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