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________________ ३, १५७.1 जोगमागणाए बंधसामित्त [ २२९ भावादो । पच्चया सुगमा । मणुसगइसंजुत्तो बंधो । देव-णेरइयअसंजदसम्मादिट्ठी सामी । बंधद्धाणं बंधविणवाण च सुगमं । सादि-अद्धओ बंधो । पयडिबंधगयविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि __णवरि विसेसो बेट्टाणियासु तिरिक्खाउअं णत्थि मणुस्साउअं णत्थि ॥१५६॥ ___ कुदो १ देव-णेरइयाणमपज्जत्तद्धाए आउवबंधविरोहादो। आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पंचणाणावरणीयछदसणावरणीय-सादासाद-चदुसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगंछा देवाउ-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्बियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहाय-- गइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सरआदेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १५७ ॥ बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम है । मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव व नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है । प्रकृतिबन्धगत विशेषके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं विशेषता केवल इतनी है कि द्विस्थानिक प्रकृतियोंमें तिर्यगायु नहीं है और मनुष्यायु नहीं है ॥ १५६ ॥ इसका कारण यह है कि देव व नारकियोंके अपर्याप्तकालमें आयुबन्धका विरोध है। आहारकाययोगी और आहारमिश्रकाययोगियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभम, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चमोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१५७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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