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________________ १४० ] मणुअदुगस्स सासणम्मि सांतर - निरंतरो । मिच्छाइट्ठिस्स बावण्ण, सासणस्स सत्तेत्तालीस, असजद सम्मादिडिस्स तेत्तालीस देवेसु पच्चया; ओघपच्चएसु णवुंसयवेदोरालियदुगाणमभावाद । । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स एक्केत्तालीस पच्चया, ओघपच्चएसु णवुंसयवेदोरालियकाय जोगाणमभावादो । सेसं सुगमं । Dristi बंधसामित्तविचओ एदाओ सव्वपयडीओ सम्मामिच्छादिट्टि - असंजदसम्मादिडिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, तत्थ तिरिक्खगईए वंधाभावादो । मणुसगइ - मणुसाणुपुवी - उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुतं, अवसेसाओ पयडीओ मिच्छाइट्टि - सासणसम्माइट्टिणो तिरिक्ख माणुसगइ संजुत्तं बंधति, अविरोहादो। सव्वपयडीणं बंधरस देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणासो च सुगमो | पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुर्गुछा- तेजा - कम्मइयसरीर- वण्ण गंध-रस- फास-अगुरुअलहुअउवघाद णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइडिम्हि चउन्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धउध्वियाभावादो' । अवसेसाणं पयडीणं सव्वगुणेसु सादि-अद्भुवो । सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है । देवों में मिध्यादृष्टिके बावन, सासादनके सैंतालीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके तेतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, यहां ओघप्रत्ययों में नपुंसक वेद और औदारिकद्विकका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उसके ओघ प्रत्ययों में नपुंसकवेद और औदारिक काययोगका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । इन सब प्रकृतियोंको सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इन गुणस्थानों में तिर्यंचगतिका वन्ध नहीं होता । मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष प्रकृतियोंकों मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति व मनुष्यगतिले संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है । सर्व प्रकृतियोंके बन्धके देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनाश सुगम है । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सब गुणस्थानों में सादि व अध्रुव बन्ध होता है । इति पाठः । Jain Education International ३, ७८. १ अतो विहाभावादी'; आमतौ ' चत्रियाभावादी ; काप्रतौ 6 For Private & Personal Use Only C चदुव्विाभावादो > www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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