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________________ ए ११२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ६२. सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा॥ ६२॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे- एत्थ बंधादो उदओ पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णस्थि, एदासिमेत्थ उदयाभावादो । एदासिं परोदएणेव बंधो, गिरयगदीए उदयाभावादो । णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुक्रमाभावादो । पच्चया चउहाणियपयडिपच्चयतुल्ला । मणुसगइसंजुत्तं सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो बंधंति । णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादि-अद्धवबंधो, अद्धवबंधित्तादो सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिणिव्वाणुवगमणे णियमादो वा। तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद-अट्ठकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि अरदि-सोग-भय-दुगुंछादेवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष गुणस्थानवर्ती अबन्धक हैं ॥ ६२॥ - इसका अर्थ कहते हैं- बन्धसे उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या पश्चात्, यह विचार यहां नहीं हैं, क्योंकि, इनका यहां उदय नहीं है। इनका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिमें इनके उदयका अभाव है । बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धका विश्राम नहीं होता। इनके प्रत्यय चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययोंके समान हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि वे अधुववन्धी हैं; अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके मुक्तिगमनमें नियम होनेसे भी सादि व अध्रुव बन्ध होता है। . तिर्यग्गतिमें तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक तैजस १ मिस्साविरदे उच्चं मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो। मिच्छा सासणसम्मा मणुवदुगुच्चं ण बंधंति ।। गो. क. १०७. २ अ-काप्रत्योः ‘णियमाभावादो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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