SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३, ४८.] णिरयगदीए मिच्छत्तादीणं बंधसामित्तं 1१०१ तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्माणुपुव्वि-उज्जोवाणि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिविणो तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधति । सेसाओ दुट्ठाणपयडीओ दुगइसंजुत्तं बंधति । सव्वासिं पयडीणं णेरइया सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे सादि-अद्धवो । सेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो चेव । मिच्छत्त-णqसयवेद हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ४७ ॥ सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥४८॥ एदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे-मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, मिच्छाइट्ठिचरिमसमए बंधोदयवोच्छेददंसणादो । णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामाणं पुव्वं बंधो वोच्छिन्जदि पच्छा उदओ, मिच्छाइट्टि चरिमसमए णट्ठबंधाणमेदार्सि असंजदसम्मादिहिहिं उदयवोच्छेदुवलंभादो । णवरि असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणस्स पुवावर तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष द्विस्थान प्रकृतियोंको दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । सब प्रकृतियों के नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्ध विनष्टस्थान सुगम हैं। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादनमें सादि और अध्रुव बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव ही होता है । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपटिकाशरीरसंहनन नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४७ ॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष नारकी जीव अबन्धक हैं ॥४८॥ इस सूत्रसे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं - मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके चरम समयमें इसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनन नामकर्मीका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके चरम समयमें बन्धके नष्ट हो जानेपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमै इनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है । विशेष इतना है कि असंप्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy