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________________ ३, ४४.] णिरयगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदएहि बझंति, अपज्जत्तकाले एदेसिमुदयाभावादो। णवरि पत्तेयसरीरस्स उवघादभंगो, विग्गहगदीए चेव उदयाभावादो । सेसेसु दोसु सोदएणेव एदासिं बंधो, तेसिं तत्थ अपज्जत्तकालाभावादो । पुरिसवेद-मणुसगइ-ओरालियसरीर-समचउरससंठाणओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वि-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सरआदेज्ज-जसकित्ति-उच्चागोदाणं चदुसु गुणहाणेसु परोदएणेव बंधो, णिरएसु एदासिमुदयविरोहाद।। पंचणाणावरणीय-छंदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-परघाद---- उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण पंचंतराइयाण णिरंतरो बंधो, णिरयगइम्हि णिरंतरबंधित्तादो। सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, सव्वगुणहाणेसु पडिवक्खपयडीए बंधुवलंभादो । पुरिसवेद-मणुसगइ-समचउरससंठाणवजरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-मणुसगइपाओग्गाणुपुवि-उच्चागोदाणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । णवरि मणुसगइ प्रकृतियां मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनका उदय नहीं रहता। विशेष इतना है कि प्रत्येकशरीरका बन्ध उपघातके समान है, क्योंकि, केवल विग्रहगतिमें ही उसका उदय नहीं रहता। शेष दो गुणस्थानों में स्वोदयसे ही इनका बन्ध होता है, क्योंकि, शेष दोनों गुणस्थान नारकियोंके अपर्याप्तकालमें होते नहीं हैं। पुरुषवेद, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंका चारों गुणस्थानोंमें परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियोंमें इनके उदयका विरोध है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त,प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच य, इनका निरन्तर वन्ध है, क्योंकि, ये प्रकृतियां नरकगतिमें निरन्तर बंधती हैं। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध है, क्योंकि, सर्व गुणस्थानोंमें इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र, इनका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। विशेषता इतनी है कि तीर्थकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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