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________________ [८७ ३, ४१.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा कारणाणं संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघषलस्स धीरस्स' णाणदंसणकलिदस्स होदि । ण च तत्थ दंसणविसुज्झदादीणमभावो, तहा तवंतस्स अण्णहाणुववत्तीदो । तदो एवं सत्तमं कारणं । साहूणं पासुअपरिच्चागदाए- अणतणाण-दंसण-वीरिय-विरइ-खइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम । पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा तं पासुअं, अधवा जं णिरवज्जं तं पासुअं। किं ? णाण-दसण-चरित्तादि । तस्स परिच्चागो विसज्जणं, तस्स भावो पासुअपरिच्चागदा । दयाबुद्धीए साहूणं णाण-दसण-चरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअपरिच्चागदा णाम । ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो । तिरयणोवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि, तेसिं दिट्ठिवादादि उवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो। तदो एदं कारणं महेसिणं चेव होदि । ण च एत्थ सेसकारणाणमसंभवो । ण च अरहंतादिसु अभत्तिमंते णवपदत्थविसयसद्दहणेणुम्मुक्के सादिचारसीलव्वदे परिहीणावासए णिरवज्जो णाण-दंसण-चरित्तपरिच्चागो संभवदि, विरोहादो। तदो एदमट्ठमं कारणं । सभी शेष कारण सम्भव हैं, क्योंकि, यथाथाम तप ज्ञान-दर्शनसे युक्त सामान्य बलवान् और धीर व्यक्तिके होता है, और इसलिये उसमें दर्शनविशुद्धतादिकोंका अभाव नहीं होसकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर यथाथाम तप बन नहीं सकता। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मबन्धका सातवां कारण है। साधुओंके द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्य ज्ञान-दर्शनादिकके त्यागसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोंके जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। जिससे आस्रव दूर हो गये हैं उसकानाम प्रासुक है,अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही तो सकते हैं । उनके परित्याग अर्थात् विसर्जन करनेको प्रासुकपरित्याग और इसके भावको प्रासुकपरित्यागता कहते हैं । अर्थात् दयाबुद्धिसे साधुओं द्वारा किये जानेवाले ज्ञान, दर्शन व चारित्रके परित्याग या दानका नाम प्रासुकपरित्यागता है । यह कारण गृहस्थोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनमें चारित्रका अभाव है। रत्नत्रयका उपदेश भी गृहस्थोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, दृष्टिवादादिक उपरिमश्रतके उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है । अत एव यह कारण महर्षियोंके ही होता है । इसमें शेष कारणोंकी असंभावना नहीं है, क्योंकि अरहन्तादिकोंमें भक्तिसे रहित, नौ पदार्थविषयक श्रद्धानसे उन्मुक्त, सातिचार शील-व्रतोंसे सहित और आवश्यकोंकी हीनतासे संयुक्त होनेपर निरवद्य ज्ञान, दर्शन व चारित्रका परित्याग विरोध होनेसे सम्भव ही नहीं है । इसी कारण यह तीर्थंकर नामकर्म बन्धका आठवां कारण है। १ अप्रतो वीरस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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