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________________ ४४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १, ११. सुदयद्वाणाभावादो। वुज्जोवुदयविरहिदपंचिंदियतिरिक्खस्स भण्णमाणे तत्थ इदमेक्कवीसाए हाणं होदि-तिरिक्खगदि-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासतिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवी-अगुरुगलहुग-तस-बादर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिरं सुभासुभं सुभग-दुभगाणमेक्कदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेक्कदरं जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं च एदासिमेक्कवीसपयडीणमेक्कं चेव द्वाणं । एत्थ पज्जत्तउदएण अह भंगा, अपज्जत्तउदएण एक्को । कुदो ? सुभग-आदेज्ज-जसकित्तीहि सह एदस्सुदयाभावा । सव्वभंगसमासो णव |९| । सरीरे गहिदे आणुपुग्विमवणिय ओरालियसरीरं छहं संठाणाणं एकदरं ओरालियसरीरअंगोवंग छण्हं संघडणाणमेकदरं उवघाद-पत्तेयसरीरमिदि एदेसु कम्मेसु पक्खित्तेसु छब्बीसाए हाणं होदि । एत्थ पज्जत्तउदएण अट्ठासीदा बे सदा भंगा होति । अपज्जत्तउदएण एको चेव । कुदो ? सुहेहि सह अपजत्तस्स उदयाभावा । एत्थ सयभंगसमासो एकारमणतिसदमेत्तो |२८९।। एत्थ भंगविसयणिच्छयसमुप्पायणट्ठमेदाओ गाहाओ बत्तव्बाओ । तं जहा ही उदयस्थान होते हैं, क्योंकि, उसके अट्ठाईस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान नहीं होता। अब उद्योतोदय रहित पंचेन्द्रिय तिर्यचके उदयस्थान कहते हैं। उनमें इक्कीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान इस प्रकार है-तियंचगति', पंचेन्द्रियजाति', तैजस और कार्मणशरीर', वर्ण", गंध', रस, स्पर्श', तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी', अगुरुलघुक", प्रस", बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे कोई एक, स्थिर, और अस्थिर, शुभ और अशुभ, सुभग और दुर्भगमेंसे कोई एक, आदेय और अनादेयमें से कोई एक", यशकीर्ति और अयशकीर्तिमेसे कोई एक और निर्माण', इन इक्कीस प्रकृतियोंका एक ही स्थान होता है। यहां पर्याप्तके उदय सहित (सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशकीर्ति-अयशकीर्तिके विकल्पोंसे) आठ भंग होते हैं । अपर्याप्तके उदय सहित केवल एक ही भंग है, क्योंकि, सुभग आदेय और यशकीर्ति प्रकृतियोंके साथ अपर्याप्तका उदय नहीं होता । इन सब भंगोंका योग नौ है (९)। शरीर ग्रहण करनेपर आनुपूर्वीको छोड़ औदारिकशरीर, छह संस्थानों से कोई एक संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक संहनन, उपघात, और प्रत्येकशरीर, इन छह कर्मोंको मिला देने पर छम्चीस प्रकृतियोंवाला उदयस्थान होता है । यहां पर्याप्तोदय सहित (सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति, छह संस्थान और छह संहनन, इनके विकल्पोंसे २४२४२४६x६२८८ ) दो सौ अठासी भंग होते हैं। अपर्याप्तोदय सहित एक ही भंग है, क्योंकि, उक्त वैकल्पिक प्रकृतियोंमेंसे शुभ प्रकृतियोंके साथ अपर्याप्तका उदय नहीं होता। यहां सब भंगोंका योग ग्यारह कम तीनसौ अर्थात् दोसौ नवासी होता है (२८९)। यहां भंगोंके विषयमें निश्चय उत्पन्न करानेके लिये ये गाथायें कहने योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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