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________________ २, ७, ७.] फोसणाणुगमे णेरइयाणं फोसणं [३७१ वणाए खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउवियपदपरिणदेहि मेरइएहि तीदे काले चदुण्ह लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? असंखेज्जजोयणविक्खंभणिरयावासखेत्तफलं ठविय गैरइयाणगुस्सेहेण गुणिय लद्धं तप्पाओग्गसंखेज्जबिलसलागाहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेज्जदिमागमेत्तखेत्तुवलंभादो । अदीदकाले मारणंतिय-उववादपरिणदेहि पढमपुढविणेरइयेहि तिणं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणों फोसिदो। कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ? असीदिसहस्साहियजोयणलक्खपढमपुढविवाहल्लम्मि हेडिमजोयणसहस्सं णेरइएहि सव्वकालं ण छुप्पदि त्ति काऊण एत्थ जोयणसहस्समवणिय सेसजोयणसहस्सबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय उस्सेहेण एगुणवंचासमेत्तखंडाणि काऊण पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि । कुदो ? एक्करज्जुरुंदो सत्तरज्जुआयदो जोयणलक्खबाहल्लो तिरियलोगो ति गुरूवएसादो । जे पुण जोयणलक्खबाहल्लं रज्जुविक्खंभं झल्लरीसमाणं तिरियलोग भणंति तेसिं वत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात पदोंको प्राप्त नारकियोंके द्वारा अतीत कालमें चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र पत्र स्पष्ट है, क्योंकि, असंख्यात योजन विष्कम्भरूप नारकावासके क्षेत्रफलको स्थापित कर व उसे नारकियोंके उत्सेधसे गुणित कर प्राप्त राशिको तत्प्रायोग्य संख्यात बिलशलाकाओंसे गुणित करनेपर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र क्षेत्र उपलब्ध होता है । अतीत कालकी अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्धात व उपपाद पदको प्राप्त प्रथम पृथिवीके नारकियों द्वारा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है। शंका-तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्शन क्षेत्र कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-एक लाख अस्सी सहस्त्र योजनप्रमाण प्रथम पृथिवीके बाहल्यमें अधस्तन एक सहस्र योजन क्षेत्र सर्व काल नारकियोंसे नहीं छुआ जाता, ऐसा समझकर, इसमेंसे एक सहस्र योजनोंको कम कर, शेष (एक लाख उन्यासी) सहस्र योजन बाहल्यरूप राजुप्रतरको स्थापित कर, उत्लेधसे उनंचास मात्र खण्ड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है, क्योंकि, 'एक राजु विस्तृत, सात राजु आयत, और एक लाख योजन बाहल्यवाला तिर्यग्लोक है' ऐसा गुरुका उपदेश है। किन्तु जो आचार्य एक लाख योजन बाहल्यसे युक्त व एक राजु विस्तृत झालरके समान तिर्य १ अ-काप्रत्योः 'पदेहि परिणदे णेरइएहि ', आप्रतोपदेहि परिणदे णेरइए' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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