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________________ २, ६, ८२.] खेत्ताणुगमे णाणमग्गणा [ ३५१ अप्पहाणं । विभंगणाणि-मणपज्जवणाणी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ८१ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८२ ॥ ___ एत्थ ताव विभंगणाणीणं वुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-उब्वियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगणे । कुदो ? पहाणीकददेवपज्जत्तरासित्तादो । मारणंतियसमुग्घादगदा एवं चेव । णवरि तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं ।। मणपज्जवणाणीणं बुच्चदे--- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जादिभागे। मारणंतियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे । सेसं सुगमं । ........... भागत्वसे दोनोंमें भेद है, परन्तु वह यहां अप्रधान है। विभंगज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव स्वस्थान व समुद्धातसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। विभंगज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ८२ ॥ यहां पहले विभंगज्ञानियोंका क्षेत्र कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्धातकी प्राप्त विभंगज्ञानी जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, यहां देव पर्याप्त राशि प्रधान है । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त विभंगज्ञानियोंके क्षेत्रका प्ररूपण भी इसी प्रकार है । विशेष इतना है कि वे तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं ऐसा कहना चाहिये। ___ मनःपर्ययज्ञानियोंका क्षेत्र कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्घातको प्राप्त मनापर्ययज्ञानी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात प्राप्त वे ही जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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