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________________ ३४८ ] ॥ ७१ ॥ छक्डागमें खुदाबंधो [ २, ६, ७१. सयवेदा सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? सुगममेदं । सव्वलो ॥ ७२ ॥ दस्त्थो बुच्चदे | तं जहा - सत्थाण- वेयण-कसाय मारणंतिय उववादगदा सव्वलोए । कुदो ? आणंतियादो । विहारवदिसत्थाण- वेउच्चियसमुग्वादगदा तिहिं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । वरि वेउच्चियसमुग्धादगदा तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे । कुदो ? तससिग्गहणादो । अवगदवेदा सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? || ७३ ॥ सुमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७४ ॥ दस अत्थो वुच्चदे- चदुण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स नपुंसकवेदी जी स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है । नपुंसकवेदी जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ।। ७२ ।। इसका अर्थ कहते है । वह इस प्रकार है- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको प्राप्त नपुंसक वेदी जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि, यहां सराशिका ग्रहण है । अपगतवेदी जीव स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ।। ७३ ।। यह सूत्र सुगम है। अपगतवेदी जीव लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ७४ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- अपगतवेदी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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