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________________ २, ६, ३३.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं [३२९ कसायसमुग्घादगदा पंचिंदियअपज्जत्ता चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तोगाहणत्तादो । सव्वत्थ अपज्जत्तोगाहणटुं भागहारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे । एत्थ खेत्तविण्णासो जाणिय कायव्यो । कायाणुवादेण पुढविकाइय आउकाइय तेउकाइय वाउकाइय सुहुमपुढविकाइय सुहुमआउकाइय सुहुमतेउकाइय सुहुमवाउकाइय तस्सेव पज्जता अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ ३२॥ सुगममेदं । सव्वलोगे ॥ ३३ ॥ सस्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा एदे पुढविकाइयादिसोलस वि वग्गा इस प्रकार है- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त पंचेन्द्रिय अपर्याप्त चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, वे उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाले हैं । सर्वत्र अपर्याप्तोंकी अवगाहनाके लिये भागहार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। मारणान्तिक और उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहां क्षेत्रविन्यास जानकर करना चाहिये। कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥३२॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त पृथिवीकायिकादि जीव उक्त पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ३३ ॥ स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको प्राप्त ये पृथिवीकायिकादि सोलह जीवराशियां सर्व लोकमें रहती हैं, क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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