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________________ [ २७ २, ५, ८८.] दयपमाणाणुगमै मण-वचिजोगीण पमाणं देवाणं संखेज्जदिभागो॥ ८५॥ देवाणमवहारकाले बेछप्पण्णंगुलसदवग्गे तप्पाओग्गसंखेज्जरूवेहि गुणिदे एदेसिमवहारकाला होति । एदेहि जगपदरम्हि भागे हिदे पुव्युत्तहरासीओ होति । सेसं सुगमं । वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगी दवपमाणेण केवडिया ? ॥८६॥ सुगमं । असंखेज्जा ॥ ८७ ॥ एदेण संखेज्जाणताणं पडि से हो कदो । कुदो ? उभयसत्तिसंजुत्तत्तादो। असंखेज्ज पि तिविहं । तत्थेदम्हि एदेसिमबट्ठाणमिदि जाणावणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ८८॥ एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं' जहण असंखेज्जासंखेजस्स य पडिसेहो कदो, पांच मनोयोगी और तीन वचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे देवोंके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।। ८५ ॥ __ दो सौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गरूप देवोंके अवहारकालको तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे गुणित करने पर इनके अवहारकाल होते हैं । इनसे जगप्रतरके भाजित करनेपर पूर्वोक्त आठ राशियां होती है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। वचनयोगी और असत्यमृपा अर्थात् अनुभय वचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात हैं ।। ८७ ॥ इस सूत्रके द्वारा संख्यात व अनन्तका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, वह सूत्र संख्यात व अनन्तके प्रतिषेध तथा असंख्यातके विधानरूप उभय शक्तिसे संयुक्त है। असंख्यात भी तीन प्रकार है। उनमेंसे इस असंख्यातमें इनका अवस्थान है, इसके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी कालकी अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंसे अपहृत होते हैं ॥ ८८॥ इस सूत्रके द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यातका १ प्रतिष । साणं संखेन्जाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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