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________________ गदियागदियाए तिरिक्खाणं गदीओ [४५५ कुदो ? विरोहाभावा । तिरिक्खेसु गच्छंता सव्वतिरिक्खेसु गच्छंति ॥ १०४ ॥ मणुसेसु गच्छंता सव्वमणुसेसु गच्छंति ॥ १०५॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । देवेसु गच्छंता भवणवासियप्पहुडि जाव सयार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु गच्छंति ॥ १०६ ॥ कुदो ? तत्तो उवरि सम्मत्ताणुव्वएहि विणा गमणाभावा । पंचिंदियतिरिक्खअसण्णिपज्जत्ता तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगदसमाणा कदि गदीओ गच्छंति ? ॥ १०७ ॥ सुगममेदं पुच्छासुत्तं । चत्तारि गदीओ गच्छंति णिरयगदि तिरिक्खगदिं मणुसगदिं देवगदिं चेदि ॥ १०८ ॥ क्योंकि, उनके सातो नरकोंमें जानेसे कोई विरोध नहीं आता। तिर्यंचोंमें जानेवाले उपर्युक्त तिथंच जीव सभी तिर्यचोंमें जाते हैं ॥ १०४॥ मनुष्योंमें जानेवाले उपर्युक्त तियेच जीव सभी मनुष्योंमें जाते हैं ॥१०५॥ ये दोनों सूत्र सुगम हैं। देवोंमें जानेवाले उपर्युक्त तिथंच जीव भवनवासियोंसे लगाकर शतारसहस्रार तकके कल्पवासी देवोंमें जाते हैं ॥१०६॥ क्योंकि, शतार-सहस्रार कल्पके ऊपर सम्यक्त्व और अणुव्रतोंके विना गमन नहीं होता। पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंज्ञी पर्याप्त तिर्यंच जीव तियंचपर्यायोंसे मरणकर कितनी गतियोंमें जाते हैं ? ॥१०७॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है। उपर्युक्त तिर्यंच जीव चारों गतियोंमें जाते हैं- नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति ॥१०८ ॥ १ जे पंचिंदियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण जुदा। मंदकसाया केई जाव सहस्सारपरियंत ॥ ति. प. ८,५६२. २ पूर्णासंक्षितिरश्चामविरुद्धं जन्म जातुचित् । नारकामरतिर्यक्ष नृषु वा न तु सर्वतः॥ तत्त्वार्थसार, २, १५८. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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