SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए सजोगिजिणपरूवणं [४१३ विदियसमए कवाडं करेदि । तम्हि सेसिगाए हिदीए असंखेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणते भागे हणदि । तदो तदियसमए मंथं करेदि। हिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि । तदो चउत्थसमए लोगमावूरेदि । लोगे पुण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए । द्विदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे द्घातको करते हैं। उस कपाटसमुद्घातमें वर्तमान रहकर शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको नष्ट करते हैं, तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंके शेष अनुभागके भी अनन्त बहु. . भागको नष्ट करते हैं । पश्चात् तृतीय समयमें प्रतरसंक्षित मंथसमुद्घातको करते हैं । इस समुद्घातमें भी स्थिति व अनुभागको पूर्वके समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समयमें अपने सब आत्मप्रदेशोंसे सब लोकको पूर्ण करके लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त होते हैं । लोकपूरणसमुद्घातमें समयोग हो जानेपर योगकी एक वर्गणा हो जाती है। विशेषार्थ-लोकपूरणसमुद्घातमें वर्तमान केवलोके लोकप्रमाण समस्त जीवप्रदेशोंमें योगके अविभागप्रतिच्छेद वृद्धि-हानिसे रहित होकर सदृश हो जाते हैं। अत एव सब जीवप्रदेशोंके परस्परमें समान होनेसे उन जीवप्रदेशोंकी एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्थामें भी स्थिति और अनुभागको पूर्वके ही समान नष्ट करते हैं। १ कपाटमिव कपाटम् । क उपमार्थः ? यथा कपाटं बाहल्येन स्तोकमेव भूत्वा विष्कंभायामाभ्यां परिवर्धते एवमयमपि जीवप्रदेशावस्थाविशेषः मूलशरीरबाहल्येन तत्रिगुणबाहल्येन वा देसूणचोदसरज्जुआयामेण सत्तरज्जुविक्खंभेण वड़िहाणिगदविक्खंभेण वा वड़ियूण चिट्ठदि त्ति कवाडसमुग्धादो ति भण्णदे, परिप्फुडमेवेत्थ कवाडसंठाणोवलंभादो । जयध. अ. प. १२३८. २ मध्यतेऽनेन कर्मेति मन्थः, अघादिकम्माणं द्विदिअणुभागणिव्युहणट्ठो केवलिजीवपदेसाण यथाविसेसो पदरसण्णिदो मंथो त्ति वुत्तं होई । जयध. अ. प. १२३८. ३ वादवलयावरुद्धलोगागासपदेसेसु वि जीवपदेसेसु समंतदो णिरंतरं पविढेसु लोगपूरणसण्णिदं चउत्थं केवलिसमुग्धादमेसो तदवत्थाए पडिवज्जदि त्ति भणिदं होदि । जयध. अ. प. १२३९. ४ लोगे पुण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स ति समजोगो णायचो। लोगपूरणसमुग्घादे वट्टमाणस्सेदस्स केवलिणो लोगमेत्तासेसजीवपदेसेसु जोगाविभागपलिच्छेदा वड्डीहाणीहि विणा सरिसा चेव होगुण परिणमंति । तेण सब्वे जीवपदेसा अण्णोणं सरिसधणियसरूवेण परिणदा संता एया वग्गणा जादा। तदो समजोगो ति एसो तदवत्थाए णायब्बो, जोगसत्तीए सव्वजीवपदेसेसु सरिसमावं मोत्तण विसरिसभावाणुवलंभादो त्ति वुत्तं होई॥ जयध. अ. प. १२३९. . ५ ठिदिखंडमसंखेजे भागे रसखंडमप्पसत्थाणं । हणदि अणता भागा दंडादी चउसु समएमु॥ लब्धि.६२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy