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________________ २७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-८, १४. . संपहि अपुचकरणादो जाव संजदासजदो' एगंताणुवड्डीए चरित्ताचरित्तलद्धीए वड्ढदि ताव एदम्हि काले विदिबंध-ट्ठिदिसंतकम्म-ट्ठिदिखंडयाणं जहण्णुक्कस्सियाणमाबाहाणं जहण्णुक्कस्सियाणमुक्कीरणद्धाणं अण्णेसिं च पदाणं अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। तं जधा- सव्वत्थोवा एगताणुवड्डीए चरिमाणुभागखंडयउक्कीरणद्धा । अपुव्यकरणपढमाणुभागखंडयउक्कीरणद्धा विसेसाहिया । एगंताणुबड्डीए चरिमद्विदिखंडयउक्कीरणद्धा द्विदिवंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । अपुवकरणपढमट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धा द्विदिबंधगद्धा च दो वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ। पढमसमयसंजदासंजदप्पहडि एगंतवड्ढावड्डीए' चरित्ताचरित्तपज्जाएहि वड्ढदि ताव एसो वड्डिकालो संखेज्जगुणो । अपुधकरणद्धा संखेज्जगुणा' । जहणिया संजमासजमद्धा सम्मत्तद्धा मिच्छत्तद्धा अब अपूर्वकरणसे लेकर जब तक संयतासंयत एकान्तानुवृद्धिके द्वारा संयमासंयमलब्धिसे बढ़ता है तब तक इस मध्यवर्ती कालमें स्थितिबन्ध, स्थितिसत्त्व, स्थितिकांडक, जघन्य और उत्कृष्ट आवाधाएं तथा जघन्य और उत्कृष्ट उत्कीरणकाल, इन पदोका, तथा अन्य पदोका अल्पबहुत्व कहेगे। वह इस प्रकार है-एकान्तानुवृद्धि के अन्तमें संभव अन्तिम अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल सबसे थोड़ा है। उससे अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है। उससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तमें संभव अन्तिम स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका काल, ये दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणित हैं। उससे अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका काल, ये दोनों परस्पर तुल्य और विशेष अधिक हैं। उससे प्रथमसमयवर्ती संयतासंयतसे लेकर जब तक एकान्तवृद्धावृद्धिसे, अर्थात् उत्तरोत्तर प्रतिसमय अनन्तगुणित श्रेणीक्रमसे, संयमासंयमरूप पर्यायोंसे बढ़ता है तब तक यह एकान्तानुवृद्धिका काल संख्यातगुणा है। उससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। उससे जघन्य संयमासंयमका काल, जघन्य सम्यक्त्वप्रकृतिके १ प्रतिषु ' संजदो' इति पाठः । २ विदियकरणादु जाव य देसस्से यंतवड़िचरिमे ति । अपाबहुगं वोच्छं रसखंड द्वाणपहुदीणं ॥ लब्धि. १७५. ३ अंतिमरसखंडक्कीरणकालो दु पठमओ अहिओ । चरिमहिदिखंडुक्कीरणकालो संखगुणिदो दु ॥ . लब्धि. १७६. ४ अ आप्रत्योः 'पढमसमयं ' इति पाठः। एवं भणिदे तासु चेव संजमासंजमसंजमलद्धीसु अलद्धपुव्वासु पडिलद्धासु तल्लाभपढमसमयप्पहुडिअंतोमुत्तकालभतरे पडिसमयमणंतगुणाए सेढीए परिणामवड्डी गहेयव्वा, उवरि उवरि परिणामवडीए वडावडीववएसावलंबणादो। जयध. अ. प. ९८४. ६ पदमट्ठिदिखंडुक्कीरणकालो साहियो हवे तत्तो। एयंतवडिकालो अपुवकालो य संखगुणियकमा ॥ , लब्धि. १७७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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