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________________ १, ९-८, ९.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पढमसम्मत्तुप्पादणं [२३९ दंसणमोहस्सुवसामओ दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्यो । पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होदि पज्जत्तो' ॥ २ ॥ सव्वणिरय-भवणेसु य समुद्द-दीव-गुह-जोइस-विमाणे । अहिजोग्ग-अणहिजोग्गे उवसामो होदि णायव्वो ।। ३ ॥ उवसामगो य सम्वो णिव्वाघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियव्यो णिरासणो चेव खीणम्हि ॥ ४ ॥ सायारे पट्ठवओ णिवओ मज्झिमो य भयणिज्जो । जोगे अण्णदरम्मि दु जहण्णए तेउलेस्साए ॥ ५॥ दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए । वह जीव नियमसे पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है। २। इन्द्रक, श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकों में, सर्व प्रकारके भवनवासी देवोंमें, सर्व समुद्रों और द्वीपोंमें, गुह अर्थात् समस्त व्यन्तर देवोंमें, समस्त ज्योतिष्क देवोंमें, सौधर्मकल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक विमान तक विमानवासी देवोंमें, आभियोग्य, अर्थात् वाहनादिकुत्सित कर्ममें नियुक्त वाहन देवोंमें, उनसे भिन्न किल्विषिक आदि अनुत्तम, तथा पारिषद आदि उत्तम देवों में दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम होता है॥ ३॥ दर्शनमोहका उपशामक सर्व ही जीव निर्व्याघात, अर्थात् उपसर्गादिकके आने. पर भी विच्छेद और मरणसे रहित, होता है । तथा निरासान, अर्थात् सासादनगुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है । उपशान्त, अर्थात् उपशमसम्यक्त्व होनेके पश्चात् भजितव्य है, अर्थात् सासादनपरिणामको कदाचित् प्राप्त होता भी है और कदाचित् नहीं भी प्राप्त होता है । उपशमसम्यक्त्वका काल क्षीण अर्थात् समाप्त हो जानेपर मिथ्यात्व आदि किसी एक दर्शमोहनीयप्रकृतिका उदय आनेसे मिथ्यात्व आदि भावोंको प्राप्त होता है । अथवा, दर्शनमोहनीयकर्मके क्षीण हो जानेपर निरासान, अर्थात् सासादनपरिणामसे सर्वथा रहित, होता है ॥४॥ साकार अर्थात् ज्ञानोपयोगकी अवस्थामें ही जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वका प्रस्थापक, अर्थात् प्रारम्भ करनेवाला, होता है। किन्तु निष्ठापक, अर्थात् उसे सम्पन्न करनेवाला, मध्य अवस्थावर्ती जीव भजनीय है, अर्थात् वह साकारोपयोगी भी हो सकता है और अनाकारोपयोगी भी हो सकता है। मनोयोग आदि तीनों योगोंमेंसे किसी भी एक योगमें वर्तमान जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता है। तथा तेजोलेश्याके जघन्य अंशमें वर्तमान जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥५॥ १जयध. अ. प ९५७. २ प्रतिषु 'गह ' इति पाठः । ३ जयध, अ. प. ९५८. लब्धि. ९९. ४ जयध. अ. प. ९५८. लब्धि. १०१. जइवि सुट्ठ मंदविसोहीए परिणमिय दंसणमोहणीयमुवसामेदुमाढवेइ तो वि तस्स ते उलेस्सापरिणामो चेव तप्पाओग्गो होइ, णो हेट्ठिमलेस्सापरिणामो, तस्स सम्मत्तुप्पत्तिकारणकरणपरिणामेहिं विरुद्धसरूवत्तादो त्ति भणिदं होई । एदेण तिरिक्ख-मणुस्सेसु किण्ह-णील-काउलेस्साणं सम्मत्तप्पत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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