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________________ १, ९-८, ५.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पढमसम्मत्तुप्पादणं [ २२५ भागहारेण खंडिदेगखंडं घेत्तूण उदयावलियबाहिरद्विदिम्हि असंखेज्जसमयपबद्धे देदि। तदो उवरिमद्विदीए तत्तो असंखेज्जगुणे देदि । तदियट्टिदीए ततो असंखेज्जगुणे देदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए णेदव्यं जाव गुणसेडीचरिमसमओ त्ति । तदो उवरिमाणंतराए ठिदीए असंखेज्जगुणहीणं दव्वं देदि । तदुवरिमट्टिदीए विसेसहीणं देदि । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं चेव पदेसग्गं णिरंतरं देदि जाव अप्पप्पणो उक्कीरिदद्विदिमावलियकालेण अपत्तो त्ति । णवरि उदयावलियबाहिरट्ठिदिमसंखेज्जालोगेण खंडिदेगखंडं समऊणावलियाए वे त्तिभागे अइच्छाविय समयाहियतिभागे णिक्खिवदि पुत्वं व विसेसहीणकमेण । तदो उवरिमट्ठिदीए एसो चेव णिक्खेवो' । णवरि अइच्छावणा समउत्तरा होदि । एवं करके एक खंडको ग्रहण कर (पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप भागहारसे भाजित कर उसका एक भाग उदयावलीके भीतर गोपुच्छाकारसे देता है, और बहुभागरूप) असंख्यात समयप्रबद्धोंको उदयावलीके बाहिरकी स्थिति देता है। इससे ऊपरकी स्थितिमें उससे भी असंख्यातगुणित समयप्रबद्धोंको देता है। तृतीय स्थितिमें उससे भी असंख्यातगुणित समयप्रबद्धोंको देता है। इस प्रकार यह क्रम असंख्यातगुणित श्रेणीके द्वारा गुणश्रेणीके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए.। उससे ऊपरकी अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणित हीन द्रव्यको देता है । उससे ऊपर की स्थितिमें विशेष हीन द्रव्यको देता है । इस प्रकार विशेष-हीन विशेष-हीन ही प्रदेशाग्रको निरन्तर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थितिको आवलीमात्र कालके द्वारा प्राप्त न हो जाय । विशेष बात यह है कि उदयावलीसे बाहिरकी स्थितिको असंख्यात लोकसे खंडित कर एक खंडको, एक समय कम आवलीके दो त्रिभागोंको (३) अतिस्थापन करके, एक समय अधिक आवलीके त्रिभागमें पूर्वके समान विशेष हीनक्रमसे निक्षिप्त करता है उससे ऊपरकी स्थिति यह ही निक्षेप है। केवल विशेषता यह है कि अतिस्थापना एक समय अधिक होती है । इस प्रकार यह क्रम तब तक ले जाना १ अपुवकरणपढमसमए दिवडगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धे ओकड्डुक्कड्डणभागहारेण खंडेयूण तत्थेयखंडमेत्तदव्वमोकड्डिय तत्थासंखेज्जलोगपडिभागियं दव्वमुदयावलियमंतरे गोवुच्छायारेण णिसिंचिय पुणो सेसबहुभागदव्वमुदयावलियबाहिरे णिक्खिवमाणो उदयात्रलियबाहिराणंतरविदीए असंखेन्जसमयपबद्वमेतदव्वं णिसिंचिदे । जयध.अ.प.९५. २ उदयात्रलिस्स दव्वं आवलिभजिदे दु होदि मझधणं । रूऊणद्धाणद्वेणूणेण णिसेयहारेण ॥ मज्झिमधणमवहरिदे पचयं पचयं णिसेयहारेण । गुणिदे आदिणिसेयं विसेसहीणे कम तत्तो ॥ उक्कट्टिदम्हि देदिह असंखसमयप्पबद्धमादिम्हि । संखातीतगुणक्कममसंखहीणं विसेसहीणकमं ॥ लब्धि. ७१-७३. ३-४ अपद्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, निक्षिप्यतेऽस्मिन्निति निर्वचनात् । तेनातिक्रम्यमाणं स्थानमतिस्थापनं, अतिस्थाप्यते अतिक्रम्यतेऽस्मिन्निति अतिस्थापनम् । लब्धि, ५६. टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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