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________________ १९४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं सुगममेदं । अंतोमुहुत्तमाबाधा ॥ ३२ ॥ कुदो ? असंखेपद्धादो उवरिमआबाधाणं जहण्णट्ठिीए सह विरोधादो । आबाधा ॥ ३३ ॥ कम्मद्विदी कम्मणिसेगो ॥ ३४ ॥ दाणि दो वाणि सुगमाणि । णिरयगदि देवगदि वे उब्वियसरीर- वे उव्वियसरीर अंगोवंग- णिरयगदि देवग दिपाओग्गाणुपुव्वीणामाणं जहण्णगो द्विदिबंधो सागरोवमसहस्सस्स वे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया ||३५| [ १, ९-७, ३२. कुदो ? सव्चविसुद्वेण असणिपंचिदिएण बज्झमाणत्तादो । एदस्स परूवणङ्कं एत्थु जुज्जतं किंचि अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा - एइंदिएसु मिच्छत्तस्सुक्कस्सदिबंध गं सागरोवमं । कसायाणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा । णाणदंसणावरणंतराइय-वेदणीयाणं तिष्णि सत्तभागा । णाम- गोद- गोकसायाणं वे सत्तभागा । १ । ३ । विरोध है । यह सूत्र सुगम है । तिर्यगायु और मनुष्यायुका जघन्य आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है || ३२ || क्योंकि, असंक्षेपाद्वा कालसे ऊपरकी आवाधाओंका जघन्य स्थिति के साथ आबाधाकाल में तिर्यगायु और मनुष्यायुकी कर्मस्थिति बाधा - रहित है ॥ ३३ ॥ तिर्यगायु और मनुष्यायुकी कर्मस्थितिप्रमाण उनका कर्म-निषेक होता है ॥ ३४ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर- अंगोपांग, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन सागरोपमसहस्रके दो बटे सात भाग है ।। ३५ । Jain Education International क्योंकि, यह जघन्य स्थिति सर्वविशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवके द्वारा बांधी जाती है। इसी जघन्य स्थितिबन्धके प्ररूपण करनेके लिए यहांपर उपयोगी कुछ अर्थ की प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- एकेन्द्रिय जीवोंमें मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपम (१) है । कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपमके चार बटे सात भाग () है | ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और वेदनीय, इन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरोपमके तीन बढ़े सात भाग ( 3 ) है । नामकर्म, गोत्रकर्म और नोकषायका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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