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________________ १७६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं कोडीहिं खंडिददससागरोवमकोडाकोडी उक्कस्सट्ठिदी होदिति सिद्ध । भी अन्तर्मुहूर्तमात्र आबाधा पाई जाती है । इसलिए संख्यात कोटियोंसे खंडित अर्थात् भाजित दश कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति सूत्रोक्त तीनों कर्मोकी पृथक् पृथक् होती है, यह बात सिद्ध हुई । विशेषार्थ - सूत्रकारने जो आहारकशरीरादि तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम बतलाया है, उसीको धवलाकारने यहां और भी सूक्ष्मता से समझानेका प्रयत्न किया है कि यहां अन्तःकोड़ाकोड़ से अभिप्राय एक सागरोपम कोड़ाकोड़ीके संख्यातवें भागसे है, न कि एक कोटि सागरोपमसे ऊपर और एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमसे नीचे किसी भी मध्यवर्ती संख्यासे, जैसा कि सामान्यतः माना जाता है । और इसका कारण उन्होंने यह दिया है कि यदि यहां अन्तःकोड़ाकोडीका प्रमाण ९२५९२५९२६०४ सागरोपमोंका दशवां भाग भी लेवें, तो उसका आबाधाकाल मुहूर्त के वां भाग पड़ेगा । किन्तु यदि यही प्रमाण ग्रहण किया जाय तो असंयतसम्यग्दृष्टि, संज्ञी पंचेन्द्रियमिथ्यादृष्टि और संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तकोंके स्थितिबन्धका जो संख्यातगुणित क्रमसे अल्पबहुत्व बतलाया गया है, उसके अनुसार संज्ञी पंचेन्द्रिय मिध्यादृष्टि अपर्याप्तकोंका आवाधाकाल संख्यात मुहूर्त प्राप्त होगा। उदाहरणार्थ धवलामें ( अ. प्रति पत्र ९४०-९४३ पर) संयतका उत्कृष्ट', संयतासंयतका जघन्य व उत्कृष्ट, असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्तका जघन्य', इसके अपर्याप्तका जघन्य व उत्कृष्ट, इसीके पर्याप्तका उत्कृष्ट, संज्ञी मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय पर्याप्तका जघन्य', इसीके अपर्याप्तका जघन्य, और इसीके अपर्याप्तका उत्कृष्ट" स्थितिबन्ध उत्तरोत्तर संख्यातगुणा बतलाया गया है । अब यदि हम संयत के अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिबन्धका प्रमाण एक कोटी सागरोपम ही मान लें, और तदनुसार उसके आवाधाकालका प्रमाण मुहूर्तका वां भाग मान लें, तो जघन्य संख्यात गुणितक्रमसे भी संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध १×२×२×२×२४२×२x२x२x२ = ५१२ कोटी सागरोपम और उसकी आवाधाका प्रमाण १०x२x२x२x२x२x२x२x२x२ = ५१३ मुहूर्त होगा । किन्तु आगम में संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त मिथ्यादृष्टिका आबाधाकाल भी अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है । इससे सिद्ध हो जाता है कि प्रकृतिमें अन्तकोड़ाकोड़ीका प्रमाण एक कोटि सागरोपम से भी बहुत नीचे ही ग्रहण करना चाहिए। तभी उससे उत्तरोत्तर संख्यातगुणित स्थितिबन्धोंकी आबाधा भी अन्तर्मुहूर्त ही सिद्ध हो सकेगी। इस प्रकार धवलाकारका यह कथन सर्वथा युक्तिसंगत है कि सूत्रोक्त तीनों कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात कोटियों से भाजित सागरोपम कोड़ाकोड़ी ग्रहण करना चाहिए । ५१ २ Jain Education International [ १, ९-६, ३३. = For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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