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________________ १५८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-६, ७. अनोपयोगिगणितसूत्रम् प्रक्षेपकसंक्षेपेण विभक्ते यद्धनं समुपलब्धम् । प्रक्षेपास्तेन गुणाः प्रक्षेपसमानि खंडानि ॥ १ ॥ एवं रूवूण-दुरूऊणादिकम्मट्टिदीणं णिसेगरचणा अब्बामोहेण' कायव्वा । सादावेदणीय-इथिवेद-मणुसगदि-मणुसगदिपाओग्गाणुपुविणामाणमुक्कस्सओ द्विदिबंधो पण्णारस सागरोवमकोडाकोडीओ ॥७॥ कुदो ? पारिणामियादो । सेसं सुगमं । ३२) ३२१ ३२९ ३२३२/ ३२) ३२ | १४ ३० २८ २६] २४ २२/ २०। १८ १५| १४| १३, १२॥ ११॥ १०९ इस विषयका उपयोगी गणितसूत्र यह है यदि किसी राशिके विवक्षित राशिप्रमाण खंड करना हो, तो उन खंड-प्रमाणों (प्रक्षेपकों) को जोड़ लो और उससे राशिमें भाग दे दो । इस भागसे जो धन लब्ध आवे, उससे उन प्रक्षेपोंका गुणा करनेसे क्रमशः प्रक्षेपोंके प्रमाण खंड प्राप्त हो जावेंगे ॥१॥ उदाहरण-राशि ६३०० के हमें ६ऐसे खंड चाहिये, जो क्रमशः उत्तरोत्तर दुगुने हो । अतएव हमारे प्रक्षेपोंका योग हुआ १+२+४+ ८+ १६ +३२ = ६३. 4.३१° = १०० इस संख्यामें क्रमशः प्रक्षेपोंका गुणा करनेसे हमें १००, २००, ४००, ८००,१६००,३२०० इस प्रकार उत्तरोत्तर द्विगुण द्विगुणप्रमाण ६खंड मिल जावेंगे, जिनका समस्त योग ६३०० ही होगा। यह नियम किसी भी राशिके किसी भी प्रमाण कितने ही खंड करनेके लिये उपयोगी होगा। इसी प्रकार एक समय कम, दो समय कम आदि कर्म-स्थितियोंकी भी निषेकरचना विना किसी व्यामोहके कर लेना चाहिये। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ॥ ७॥ क्योंकि, यह स्थितिबन्ध पारिणामिक (स्वाभाविक) है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। १ प्रतिषु · अद्धामोहेग' इति पाठः। २ सादिग्छीमशुदगे तदद्धं तु । गो. क. १२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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