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________________ १, ९–६, ५. ] चूलियाए उक्कसादीए णाणावरणादीणि [ १४५ उक्सट्ठिदिति । कधमाबाधा कंडयस्सुप्पत्ती १ उक्कस्साबाधं विरलिय उक्कस्सडिर्दि समखंड करिय दिपणे रूवं पडि आबाधाकंडयपमाणं पावेदि । तत्थ रूवूणाबाधाकंडय - दिओ जाओ उक्कस्सट्टिदीदो जा ओहट्टंति ताव सा चेव उक्कस्सिया आबाधा होदि । एगबाधा कंडएणूणउक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स समऊणतिष्णिवास सहस्साणि आबाधा होदि । एदेण सरूवेण सव्वट्टिदीणं पि आबाधापरूवणं जाणिय कादव्वं । णवरि दोहिं बाधकंडएहिं ऊणिय मुक्कस्सट्ठिदि बंधमाणस्स आबाधा उक्कस्सिया दुसमऊणा होदि । तीहि आबाधाकुंड एहि ऊणियमुक्कस्सडिदि बंधमाणस्स आबाधा उक्कस्सिया तक के पुलस्कंधोंकी भी यही, अर्थात् तीन हजार वर्षकी, आबाधा होती है । शंका - आबाधाकांडककी उत्पत्ति कैसे होती है ? समाधान - उत्कृष्ट आवाधाकालको विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थितिके समान खंड करके एक एक रूपके प्रति देनेपर आबाधाकांडकका प्रमाण प्राप्त होता है । उदाहरण - मान लो उत्कृष्ट स्थिति ३० समय; अबाधा ३ समय । तो १० १० १० अर्थात् = १० यह आबाधाकांडकका प्रमाण हुआ । और उक्त स्थितिबन्धके भीतर ३ आवाधाके भेद हुए । १ १ १ 1 विशेषार्थ-कर्म-स्थितिके जितने भेदोंमें एक प्रमाणवाली आबाधा होती है, उतने स्थितिभेदोंके समुदायको आवाधाकांडक कहते हैं । विवक्षित कर्म-स्थितिमें आबाधाकांडकका प्रमाण जाननेका उपाय यह है कि विवक्षित कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति में उसीकी उत्कृष्ट आबाधाका भाग देनेपर जो भजनफल आता है, तत्प्रमाण ही उस कर्मस्थितिमें आबाधाकांडक होता है । यही बात ऊपर विरलन- देयके क्रमसे समझाई गई है। इस प्रकार जितने स्थिति के भेदोंका एक आबाधाकांडक होता है, उतने स्थितिभेदोंकी आबाधा समान होती है । यह कथन नाना समयप्रबद्धों की अपेक्षासे है । उन कर्मस्थितिके भेदों में एक समय, दो समय आदिके क्रमसे जब तक एक समय aa aaraisकमात्र तक स्थितियां उत्कृष्ट स्थिति से कम होती हैं तब तक उन सब स्थितिविकल्पों की वही, अर्थात् तीन हजार वर्ष प्रमित, उत्कृष्ट आबाधा होती है। एक आबाधाकांडक से हीन उत्कृष्ट स्थितिको बंधनेवाले समयप्रबद्धके एक समय कम तीन हजार वर्ष की आबाधा होती है। इसी प्रकार सभी कर्म-स्थितियोंकी भी आबाधा-सम्बन्धी प्ररूपणा जानकर करना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि दो आबाधाकांडकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके समयप्रबद्ध की उत्कृष्ट आबाधा दो समय कम होती है । तीन आबाधाकांडकोंसे छीन उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके समयबद्धकी उत्कृष्ट १ जेट्ठाबाहो वह्रियजेङ्कं आवाहकंडयं ॥ गो. क० १४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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