SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षटखंडागमकी प्रस्तावना समाधान-भाग ३ पृ. ३६ पर धवलाकारने स्वयं उक्त दोनों मतोंपर विचार किया है जिससे यही प्रकट होता है कि उक्त विषयपर प्राचीन आचार्योंमें मतभेद रहा है जिसके कारण कितनी ही मान्यताएं एक मतपर और कितनी ही दूसरे मतपर अवलम्बित हुई पायी जाती हैं । (धवलाकारने अपनी समन्वयबुद्धि द्वारा जहां जिस मतके अनुसार विषयकी संगति . बैठती है वहां उसी मतका अवलम्बन लेकर विचार किया है। धवलाकारके अनुसार एक मत तिलोयपण्णत्तिसूत्रके आधारपर और दूसरा परिकर्मसूत्रपर अवलम्बित है । धवलाकारने परिकर्मसूत्रके शब्दोंकी तो प्रथम मतके साथ किसी प्रकार संगति बैठा दी है, पर उनका जो अर्थ दूसरे आचार्योने किया है उसको उन्होंने केवल प्रकृतमें व्याख्यानाभास कह कर टाल दिया है। पुस्तक ५, पृ.८ ११. शंका-पल्योपमका असंख्यातवां भाग कितना समय है, वह मुहूर्त या अन्तमुहूर्तसे कितना गुणा या अधिक है, एवं उपशमसम्यग्दृष्टी जीव सासादनसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुनः ठीक कितने कालमें फिर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता है ? (हुकमचंद जैन,सलावा मेरठ ) समाधान-पल्योपमसे प्रकृतमें अद्धापल्यका ही अभिप्राय है जिसका प्रमाण भाग ३ द्रव्यप्रमाणकी प्रस्तावना पृ. ३५ पर बतलाया जा चुका है। तदनुसार पल्योपमका असंख्यातवां भाग मुहूर्त या अन्तर्मुहूर्तसे असंख्यातगुणा सिद्ध होता है। इससे अधिक स्पष्ट या निश्चित रूपसे उक्त प्रमाण न कहीं बतलाया गया और न छद्मस्थों द्वारा बतलाया ही जा सकता है । उपशमसम्यक्त्वसे सासादन होकर पुनः उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति संख्यातवर्षकी आयुमें संभव नहीं बतलाई । किन्तु असंख्यात वर्षकी आयुमें संभव बतलायी गई है । ( देखो गत्यागति चूलिका सूत्र ६६-७३ की टीका व विशेषार्थ पृ. ४४४-४४५)। इसपरसे इतना ही कहा जा सकता है कि पल्योपमका असंख्यातवां भाग भी असंख्यात वर्षप्रमाण होता है । पुस्तक ५, पृ. २८ १२ शंका-यहां सातों पृथिवियोंके जीवोंके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अन्तर बतलाते हुए जो उन्हें अन्तिम बार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराया है और सासादनमें लेजाकर एक और अन्तर्मुहूर्त कम कराया है सो क्यों ? यदि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त न कराकर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराया जाता तो वह सासादन कालका अन्तर्मुहूर्त कम करनेकी आवश्यकता न पड़ती जिससे उत्कृष्ट अन्तर अधिक पाया जा सकता था ? (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) समाधान-उक्त प्रकरणमें क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त न कराकर उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करानेके दो कारण दिखाई देते हैं । एक तो वहां सातों पृथिवियोंका एक साथ कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy