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________________ ७२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-१, ३५. जस्स कम्मस्स उदएण साहाणं जं रहस्सत्तं कायस्स दीहत्तं च होदि तं वामणसरीरसंठाणं होदि । विसमपासाणभरियदइओ व्ध विस्सदों विसमं हुंडं । हुंडस्स सरीरं हुंडसरीरं, तस्स संठाणमिव संठाणं जस्स तं हुंडसरीरसंठाणं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण पुव्वत्तपंचसंठाणेहिंतो वदिरित्तमण्णसंठाणमुप्पज्जइ एकत्तीसभेदभिण्णं तं हुंडसंठाणसण्णिदं होदि ति णादव्यं । जंतं सरीरअंगोवंगणामकम्मं तं तिविहं ओरालियसरीरअंगोवंगणामं वेउब्वियसरीरअंगोवंगणामं आहारसरीरअंगोवंगणामं चेदि ॥३५॥ संस्थान है। जिस कर्मके उदयसे शाखाओंके हस्वता और शरीरके दीर्घता होती है, वह वामनशरीरसंस्थाननामकर्म है। विषम अर्थात समानता-रहित अनेक आकारवाले पाषाणोंसे भरी हुई मशकके समान सर्व ओरसे विषम आकारको हुंड कहते हैं। हुंडके शरीरको हुंडशरीर कहते हैं । उसके संस्थानके समान संस्थान जिससे होता है, उसका नाम हुंडशरीरसंस्थान है। जिस कर्मके उदयसे पूर्वोक्त पांच संस्थानोंसे व्यतिरिक्त, इकतीस भेद-भिन्न अन्य संस्थान उत्पन्न होता है, वह शरीर इंडसंस्थानसंशावाला है, ऐसा जानना चाहिए। विशेषार्थ-आगे स्थानसमुत्कीर्तन चूलिकाके सूत्र ६८ की टीकामें धवलाकारने कहा है कि-" सव्वावयवेसु णियदसरूवपंचसंठाणेसु वे तिण्णि-चदु-पंचसंठाणाणं संजोगेणं हुंडसंठाणमणेयभेदभिण्णमुप्पजदि” अर्थात् सर्व अवयवोंमें प्रथम पांच संस्थानोंका स्वरूप नियत होनेपर दो, तीन, चार व पांच संस्थानोंके संयोगसे हुंडसंस्थान अनेक भेद-भिन्न उत्पन्न होता है। इस निर्देशके आधारसे हुंडसंस्थानको धुव मानकर हुंडसंस्थानके द्विसंयोगी आदि भंग कुल मिलकर इकतीस उत्पन्न होते हैं, जो इस प्रकार हैंद्विसंयोगी भंग १ = ५; त्रिसंयोगी भंग १०; ५४४४३४२ चतुःसंयोगी भंग १०; पंचसंयोगी भंग ५, ५४४४३४२४१ छसंयोगी भंग २x२x२xx ५ = इस प्रकार हुंडसंस्थानके समस्त संयोगी भंग ५+१०+१०+५+१=३१ होते हैं। जो शरीर-अगोपांगनामकर्म है वह तीन प्रकारका है- औदारिकशरीरअगोपांगनामकर्म, वैक्रियिकशरीरअगोपांगनामकर्म और आहारकशरीर-अगोपांगनामकर्म ॥ ३५॥ ५४४ १ आप्रतौ ' वस्स सव्वं दो' इति पाठः । अ-क-प्रत्योः 'वस्सदो' इति पाठः। २ सर्वागोपांगाना इंडसंस्थितत्वात हुंडसंस्थाननाम । त. रा. वा. ८, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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