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________________ विषय-परिचय (११) एक पृथक् ही अनुयोगद्वार बनाया, क्योंकि, संक्षेपरुचि शिष्योंकी जिज्ञासाको तृप्त करना ही शास्त्र-प्रणयनका फल बतलाया गया है। अन्य प्ररूपणाओंके समान यहां भी ओघनिर्देश और आदेशनिर्देशकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्णय किया गया है । ओघनिर्देशसे अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं, तथा शेष सब गुणस्थानोंके प्रमाणसे अल्प हैं, क्योंकि, इन तीनों ही गुणस्थानोंमें पृथक् पृथक् रूपसे प्रवेश करनेवाले जीव एक दो को आदि लेकर अधिकसे अधिक चौपन तक ही पाये जाते हैं। इतने कम जीव इन तीनों उपशामक गुणस्थानोंको छोड़कर और किसी गुणस्थानमें नहीं पाये जाते हैं। उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ जीव भी पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं, क्योंकि, उक्त उपशामक जीव ही प्रवेश करते हुए इस ग्यारहवें गुणस्थानमें आते हैं। उपशान्तकषायवीतरागमस्थोंसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, उपशामकके एक गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले चौपन जीवोंकी अपेक्षा क्षपकके एक गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले एक सौ आठ जीवोंके दूने प्रमाणस्वरूप संख्यातगुणितता पाई जाती है। क्षीणकषायवीतरागछमस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं, क्योंकि, उक्त क्षपक जीव ही इस बारहवें गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं । सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जिन प्रवेशकी अपेक्षा दोनों ही परस्पर तुल्य और पूर्वोक्त प्रमाण अर्थात् एक सौ आठ हैं। किन्तु सयोगिकेवली जिन संचयकालकी अपेक्षा प्रविश्यमान जीवोंसे संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, पांचसौ अट्ठानवे मात्र जीवोंकी अपेक्षा आठ लाख अठ्ठानवे हजार पांचसौ दो (८९८५०२) संख्याप्रमाण जीवोंके संख्यातगुणितता पाई जाती है। दूसरी बात यह है कि इस तेरहवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षसे कम पूर्वकोटीवर्ष माना गया है। सयोगिकेवली जिनोंसे उपशम और क्षपकश्रेणीपर नहीं चढ़नेवाले अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, अप्रमत्तसंयतोंका प्रमाण दो करोड़ छ्यानवे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन (२९६९९१०३ ) है । अप्रमत्तसंयतोंसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, उनसे इनका प्रमाण दूना अर्थात् पांच करोड़ तेरानवे लाख अहानवे हजार दोसौ छह (५९३९८२०६) है । प्रमत्तसंयतोंसे संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित है, क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । संयतासंयतोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, क्योंकि, संयमासंयमकी अपेक्षा सासादनसम्यक्त्वका पाना बहुत सुलभ है। यहांएर गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग जानना चाहिए, अर्थात् आवलीके असंख्यातवें भागमें जितने समय होते हैं, उनके द्वारा संयतासंयत जीवोंकी राशिको गुणित करने पर जो प्रमाण आता है, उतने सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं । सासादनसम्यग्दृष्टियोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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