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________________ २१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २९. हिदे गुणगारो आगच्छदि । को हेट्ठिमरासी ? जो थोवो। जो पुण बहु सो उवरिमरासी । एदमत्थपदं जहावसरं सव्वत्थ वत्तव्वं । . असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ २९ ॥ कुदो ? सम्मामिच्छादिविउवक्कमणकालादो असंजदसम्मादिहिउवक्कमणकालस्स असंखेज्जगुणस्स संभवुवलंभा, सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणजीवेहिंतो सम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवाणमसंखेज्जगुणत्तादो वा । को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। हेडिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय गुणगारो साहेयव्यो । मिच्छादिट्टी असंखेज्जगुणा ॥३०॥ को गुणगारो ? असंखेज्जाओ सेडीओ पदरस्स असंखेजदिभागो। तासि सेढीणं विक्खंभसूची अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि अंगुलवग्गमूलाणि विदियवग्गमूलस्स असंखेज्जभागमेत्ताणि । तं जधा- असंजदसम्मादिट्ठीहि सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं गुणेदण तेण सूचिअंगुले भागे हिदे लद्धमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। असंखेज्जाणि अंगुलवग्गमूलाणि गुणगारविक्खंभसूची होदि त्ति कधं णव्वदे ? उच्चदे- असंजदसम्मादिट्ठीहि राशि कौनसी है ? जो अल्प होती है, वह अधस्तनराशि है, और जो बहुत होती है, वह उपरिमराशि है । यह अर्थपद यथावसर सर्वत्र कहना चाहिए। नारकियोंमें सम्यमिग्थ्यादृष्टियोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥२९॥ क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमणकालसे असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा पाया जाता है । अथवा, सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणित होते हैं । गुणकार क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। अधस्तनराशिसे उपरिमराशिको अपवर्तित करके गुणकार सिद्ध कर लेना चाहिए। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥३०॥ गुणकार क्या है ? असंख्यात जगश्रेणियां गुणकार है, जो जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । उन जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । जिसका प्रमाण अंगुलके द्वितीय वर्गमूलके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात प्रथम वर्गमूल है, वह इस प्रकार है- असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे सूच्यंगुलके द्वितीय घर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे, उससे सूच्यंगुलमें भाग देने पर अंगुलका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है। शंका-अंगुलके असंख्यात वर्गमूल गुणकार-विष्कंभसूची है, यह कैसे जाना नाता है? समाधान-असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके १ असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । स. सि. १, ८. २ मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाणाः । स. सि. १,6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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