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________________ १, ८, ४.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२४५ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तत्तिया चेय ॥३॥ पुधसुत्तारंभो किमट्ठो ? उवसंतकसायस्स कसाउवसामगाणं च पञ्चासत्तीए अभावस्स संदसणफलो । जेसि पच्चासत्ती अत्थि तेसिमेगजोगो, इदरेसिं भिण्णजोगो होदि त्ति एदेण जाणाविदं । खवा संखेज्जगुणा ॥४॥ कुदो ? उत्रसामगगुणहाणमुक्कस्सेण पविस्समाणचउवण्णजीवेहिंतो खवगेगगुणसौ चार (३०४) और क्षपकश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक छह सौ आठ (६०८) ही होते हैं। यदि सर्वजघन्य प्रमाणकी भी अपेक्षासे एक समयमें एक ही जीवका प्रवेश माना जाय, तो भी प्रत्येक गुणस्थानके प्रवेशकालके समय संख्यात अर्थात् उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक तीन सौ चार और क्षपकश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक छह सौ आठ ही होंगे। यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि उपशम या क्षपकश्रेणीमें निरन्तर प्रवेश करनेका सर्वोत्कृष्ट काल आठ समय ही है । इससे ऊपर जितना भी प्रवेशकाल है, वह सब सान्तर ही है। इससे यह अर्थ निकलता है कि अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में प्रवेशान्तर अर्थात् जीवोंके प्रवेश नहीं करनेका काल असंख्यात समयप्रमाण है। चूंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानसे अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है इसलिए उसके प्रवेशान्तरका उत्कृष्ट काल भी संख्यातगुणा ही होगा। इसी प्रकार चूंकि अनिवृत्तिकरणके कालसे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है, अतः उसके प्रवेशान्तरका काल भी संख्यातगुणा ही होगा। इसका यही निष्कर्ष निकलता है कि तीनों उपशामकोंके कालोंसे तीनोंके उत्कृष्ट प्रवेशान्तरका काल बहुत है, अर्थात् प्रवेश करनेके समय सदृश हैं, अतएव उनका संचय भी सदृश ही होता है। उपर्युक्त जीव आगे कही जानेवाली गुणस्थानोंकी संख्याको ‘देखकर अल्प हैं' ऐसा कहा है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥३॥ शंका-पृथक् सूत्रका प्रारम्भ किस लिये किया है ? समाधान--उपशान्तकषायका और कषायके उपशम करनेवाले उपशामकोंकी परस्पर प्रत्यासत्तिका अभाव दिखाना इसका फल है। जिनकी प्रत्यासत्ति पाई जाती है उनका ही एक योग अर्थात् एक समास हो सकता है और दूसरोंका भिन्न योग होता है, यह बात इस सूत्रसे सूचित की गई है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थोंसे क्षपक संख्यातगुणित हैं ॥ ४ ॥ क्योंकि, उपशामकके गुणस्थानमें उत्कर्षसे प्रवेश करनेवाले चौपन जीवोंकी १ उपशान्तकषायास्तावन्त एव । स. सि. १,८. २त्रयःक्षपकाः संख्येयगुणाः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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