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________________ १, ७, ३७.] भावाणुगमे वेउब्वियकायजोगिभाव-परूवणं माणाणमुवलंभा । ओवसमिओ भावो एत्थ किण्ण परूविदो ? ण, चउग्गइउवसमसम्मादिट्ठीणं मरणाभावादो ओरालियमिस्सम्हि उवसमसम्मत्तस्सुवलंभाभावा । उवसमसेडिं चढंत-ओअरंतसंजदाणमुवसमसम्मत्तेण मरणं अत्थि त्ति चे सच्चमत्थि, किंतु ण ते उवसमसम्मत्तेण ओरालियमिस्सकायजोगिणो होति, देवगदि मोत्तूण तेसिमण्णत्थ उप्पत्तीए अभावा। ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ ३५॥ सुगममेदं । सजोगिकेवलि त्ति को भावो, खइओ भावो ॥ ३६॥ एदं पि सुगमं । वेउब्वियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति ओघभंगो ॥ ३७॥ सम्यग्दृष्टि देव, नारकी और मनुष्य पाये जाते हैं। शंका-यहां, अर्थात् औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में, औपशमिकभाव क्यों नहीं बतलाया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, चारों गतियोंके उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका मरण नहीं होनेसे औदारिकमिश्रकाययोगमें उपशमसम्यक्त्वका सद्भाव नहीं पाया जाता। शंका-उपशमश्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए संयत जीवोंका उपशमसम्यक्त्वके साथ तो मरण पाया जाता है ? समाधान-यह कथन सत्य है, किन्तु उपशमश्रेणीमें मरनेवाले वे जीव उपशामसम्यक्त्वके साथ औदारिकमिश्रकाययोगी नहीं होते हैं, क्योंकि, देवगतिको छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्तिका अभाव है। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ३५॥ यह सूत्र सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥ ३६॥ यह सूत्र भी सुगम है। वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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