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________________ छक्खंडागमै जीवट्ठाण .. [१, ६, ३८८. कादूण विदियसमए आहारी होदूण तदियसमए मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे आहारकाले उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । एगसमयावसेसे आहारकाले सासणं गंतूण विग्गहं गदो। दोहि समएहि ऊणो आहारुक्कस्सकालो सासणुक्कस्संतरं । एको अट्ठावीससंतकम्मिओ विग्गहं कादूण देवेसुववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४)। मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं परिभमिय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (५)। लद्धमंतरं । तदो सम्मत्तेण वा मिच्छत्तेण वा अंतोमुहुत्तमच्छिदूण (६) विग्गहं गदो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणओ आहारकालो सम्मामिच्छादिहिस्स उक्कस्संतरं ।। असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुञ्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥३८८॥ सुगममेदं । अवशिष्ट रहने पर मरणको प्राप्त हुआ। एक विग्रह (मोड़ा ) करके द्वितीय समयमें आहारक होकर और तीसरे समयमें मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ । असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों तक परिभ्रमणकर आहारककाल में अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः आहारककालके एक समयमात्र अवशिष्ट रहने पर सासादनको जाकर विग्रहको प्राप्त हुआ। इस प्रकार दो समयोंसे कम आहारकका उत्कृष्ट काल ही आहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मिथ्यादृष्टि जीव विग्रह करके देवों में उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) और मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। अंगुलके असंख्यातवें भाग कालप्रमाण परिभ्रमण कर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। पीछे सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्वके साथ अन्तमुहूते रह कर (६) विग्रहगतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूतौसे कम आहारककाल ही आहारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आहारक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ असंयतसम्यग्दृष्टचाचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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