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________________ ૪૬૨] क्खडागमे जीवाणं [ १, ५, २९१. अंतोमुहुत्तं पुव्विल्लतिसु' अंतोमुहुत्तेसु सोहिय सुद्धसेसेण ऊणाणि सत्त सागरोवमाणि काउलेस्साए उक्कस्सकालो होदि । तेउलेस्सिय- पम्मलेस्सिएस मिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिडी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २९९ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं ॥ २९२ ॥ तं जधा - हायमाणपम्म लेस्साए अच्छिदस्स सगद्धाखएण तेउलेस्सा आगदा । तत्थ सव्वजहण्णमंते|मुहुत्तमच्छिय काउलेस्सं गदो । एवमसंजदसम्मादिस्सि वि तेउलेस्साए जहण्णकालो वत्तव्त्रो | पम्मलेस्साए उच्चदे- एक्को सुक्कलेस्साए हायमाणाए अच्छिदो मिच्छादिट्ठी तिस्से अद्धाखरण पम्मलेस्सिओ जादो । सव्वजहणमंत मुहुत्तमच्छिदूण तेउलेस्सं गदो | एवं जहणेण अंतोमुहुत्तं मिच्छादिट्ठी पम्मलेस्साए । एवमसंजद सम्मादिडिस्स वि जहणकालो वतव्वो । पहले के तीन अन्तर्मुहूतोंमेंसे घटा कर शेष बचे हुए अन्तर्मुहूतोंसे कम सात सागरोपम कापोतलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। २९१ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।। २९२ ॥ जैसे- हायमान पद्मलेश्या में विद्यमान किसी मिथ्यादृष्टि जीवके अपनी लेश्याके काल क्षय हो जाने से तेजोलेश्या आगई । उसमें सर्वजधन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके वह कापोतलेश्याको प्राप्त हो गया। इस प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके भी तेजोलेश्याका जघन्य काल कहना चाहिए । अब पद्मश्याका जघन्य काल कहते हैं— कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव हायमान शुक्लेश्या में विद्यमान था । उस लेश्या के कालके क्षय हो जानेसे वह पद्मलेश्यावाला हो गया। वहां सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके तेजोलेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल तक वह मिध्यादृष्टि जीव पद्मलेश्या में रहा । इसी प्रकार से असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका भी जघन्य काल कहना चाहिए । Jain Education International १ प्रतिषु अंतोषं सा चेव लेस्सा पुव्विलंतिसु ' इति पाठः । २ तेजः पद्मलेश्य योर्मिथ्यादृष्टय संयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १८० ३ एकजीवं प्रति जघम्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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