SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ५, २४८.] कालाणुगमे णवंसयवेदिकालपरूवणं सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २४६ ॥ कुदो ? मिच्छादिहिस्स संजदासंजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स असंजदसम्मत्तं पडिवजिय सव्वजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्संतोमुहुत्तुवलंभा । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २४७ ॥ कुदो ? अट्ठावीससंतकम्मिगस्स सत्तमपुढवीए' उप्पज्जिय छ पज्जत्तीओ समाणिय विस्समिय विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तावसेसे आउए मिच्छतं गंतूण आउअंबंधिय अंतोमुहुत्तं विस्समिय णिग्गदस्स छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणतेत्तीस. सागरोवलंभा। संजदासंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि चि ओघं ॥२४८ ॥ कुदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि ओघादो विसेसाभावा । यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४६ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी मिथ्यादृष्टि या संयतासंयत जीवके असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सर्वजघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होने पर अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥ २४७॥ क्योंकि, मोहकर्मकी अट्ठावीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले किसी जीवके सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होकर, छह पर्याप्तियों को सम्पन्न करके, विश्राम कर और विशुद्ध होकर, तथा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, आयुके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर, मिथ्यात्वको जाकर, आगामी भवसम्बन्धी आयुको बांधकर, अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके निकलनेवाले जीवके छह अन्तर्मुहूर्तीसे कम तेतीस सागरोपम काल पाया जाता है। संयतासंयतसे लेकर. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नपुंसकवेदी जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २४८॥ क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालके साथ मोषसे कोई विशेषता नहीं है। १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण देशोनानि | स. सि. १, ३ प्रतिषु 'सत्पुढवीए' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy