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________________ १, ४, ११४.] फोसणाणुगमे णसयवेदयकोसणपरूवणं (३७७ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तमंगो। बारह चोदसभागा वा देसूणा ॥ ११३॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्बियपरिणदेहि णqसयसासणेहि तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो, पहाणीकदतिरिक्खसासणरासित्तादो। उववादपरिणदेहि एक्का. रह चोदसभागा देसूणा फोसिदा, णqसगवेदतिरिक्खसासणेसुप्पज्जमाणदेव-णेरइयाणं छ-पंचरज्जुबाहल्लतिरियपदरफोसणोवलंभादो। मारणंतिय-परिणदेहि बारह चोहसभागा फोसिदा, णेरइय-तिरिक्खाणं पंच-सत्तरज्जुवाहल्लरज्जुपदरफोसणोवलंभादो। ___ सम्मामिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११४ ।। ____एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउब्बियपरिणदेहि णqसयवेदसम्मामिच्छादिट्ठीहि तीदे काले तिण्हं लोगाणम इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ११३ ॥ __ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत नपुं. सकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातयां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, यहां पर तिर्यंच सासादन जीवराशिकी प्रधानता है। उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं। क्योंकि, नपुंसकवेदी तिर्यय सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में उत्पन्न होनेवाले देवोंकी अपेक्षा छह राजु, और नारकियोंकी अपेक्षा पांच राजु, इसप्रकार मिलकर ग्यारह राजु बाहल्यवाले तिर्यप्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने बारह बटे चौदह (१३) भाग स्पर्श किये हैं। क्योंकि, नारकियोंके पांच राजु और तिर्यचोंके सात राजु, इसप्रकार बारह राजु बाहल्यवाला राजुप्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। . नपुंसकवेदी सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ११४ ॥ इस सत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत नपुंसकवेदी सम्यग्मिध्याहृष्टि जीबोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका १ सम्यग्मिभ्यारष्टिमिलोकस्पासंख्येयभागः स्पृष्टः । स. सि. १, 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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