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________________ २५८ ] छक्खंडागमे जीवाणं कायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ७८ ॥ सत्थाणसत्थाण--वेदण-कसाय - वेउव्त्रिय-मारणंतिय उववादपरिणदकायजोगिमिच्छादिट्ठीणं तिसु वि कालेसु सव्वलोगत्तुवलंमादो, विहारवदिसत्थाण - वेउब्वियपदेहि वट्टमाणकाले तिन्हं लोगाणमसंखे आदिभागत्तेण, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेज्जदिगुणत्तेण; अदीदकाले अड्ड- चोहसभागत्तेण च तुल्लत्तुवलंभादो, सुत्तेण ओघमिदि उत्तं । सासणसम्मादिट्ठिपहुडि जाव [ १, ४, ७८. खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ ७९ ॥ एदेसिमेक्कारसहं गुणङ्काणाण तिविहं कालमस्सिदूग सत्थाणादिपदाणं परूवणा कीरमाणे पोसणाणिओगद्दारोघम्हि जधा तिविहकालमस्सिदूण एक्कारसहं गुणट्ठाणाणं संस्थाणादिपरूवणा कदा, तथा कादव्वा णत्थि एत्थ कोवि विसेसो । सजोगिकेवली ओषं ॥ ८० ॥ काययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है ||७८ || स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र तीनों ही कालों में सर्वलोक पाया जाता है । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागसे, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागसे, और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्रकी अपेक्षा, तथा अतीतकालमें आठ बटे चौदह ( ) भागप्रमाण स्पर्शन से तुल्यता पाई जाती है, इसलिए सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा है । सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ ७९ ॥ इन ग्यारह गुणस्थानों की तीनों कालोंको आश्रय करके स्वस्थानादि पर्दों की प्ररूपणा करने पर स्पर्शनानुयोगद्वारके ओघमें जिस प्रकारसे तीनों कालोंका आश्रय लेकर ग्यारह गुणस्थानोंकी स्वस्थानादि पदसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए, क्योंकि, यहां पर कोई विशेषता नहीं है । काययोगी सयोगिकेवलीका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है ॥ ८० ॥ १ काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादीनां सयोग केवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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