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________________ २५२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ४, ६९. बादरणिगोदपदिद्विदपजत्ता सव्वासु पुढवीसु अस्थि ति कधं णबदे ? सव्वपुढवीसु विज्जमाण पुढविकाइयपज्जत्तपोसणेण सह एगत्तेणुवदिट्ठअसंखेज्जाणि तिरियपदराणि त्ति वक्खाणवयणादो णव्वदे। तम्हा पत्तेयसरीरपज्जत्तेहि पोसिदखेत्तेण तिरियलोगादो संखेजगुणेण होदव्वमिदि । जधा पत्तेयसरीरवणप्फदिकाइयपज्जत्ता सव्वासु पुढवीसु होंति, तधा बादरआउकाइयपज्जत्तेहि वि सव्वासु पुढवीसु होदव्यं । अधवा बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्तपत्तेगसरीरा चेव सव्वपुढवीसु होति । बादरणिगोदाणमजोणीभूदपत्तेयसरीर• पज्जत्ता चित्ताए उवरिमभागे चेव होंति ति कट्ट बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपञ्जत्ते पादरणिगोदाणमजोणीभूदे चेव घेत्तूण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो त्ति घेत्तव्यं । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि सव्वलोगो पोसिदो। एवं बादरतेउकाइयपज्जत्ताणं पि वत्तव्यं । णवरि वेउव्वियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो वत्तव्यो। . बादरवाउपजत्तएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स संखेज्जदिभागो॥ ६९ ॥ ii...... शंका-बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं, यह कैसे जाना ? समाधान-'सर्व पृथिवियों में विद्यमान पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके स्पर्शनके साथ एकत्वसे उपदिष्ट असंख्यात तिर्यक् प्रतरप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र होता है। इस प्रकारके व्याख्यानवचनले जाना जाता है कि बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीव सर्व पृथिवियों में होते हैं। इसलिए प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोसे स्पृष्ट क्षेत्र तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा होना चाहिए। जिस प्रकारसे प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव सभी पृथिवियों में होते हैं, उसी प्रकारसे बादर जलकायिक पर्याप्त जीव भी सभी पृथिवियों में होना चाहिए । अथवा, बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त प्रत्येकशरीरवाले जीव ही सर्व पृथिवियों में होते हैं। बादरनिगोदके अयोनीभूत प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीव चित्रा पृथिवीके उपरिम भागमें ही होते हैं, इसलिए बादर निगोदोंके अयोनीभूत बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीव ही ग्रहण करके अर्थात् उनकी अपेक्षा 'तिर्थग्लोकका संख्यातवां भाग होता है। ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंने सर्व लोक स्पर्श किया है। इसी प्रकारसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीवोंका भी स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि तेजस्कायिक जीवोंके वैक्रियिकसमुद्धात पदका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है, ऐसा कहना चाहिए। बादरवायुकायिक पर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है।॥ ६९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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