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________________ १९० ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ४, २०. विदेह मारणंतियपदडिद असं जदसम्मादिठ्ठीहि य विदियादि-छट्टिढविविसिहि चदु लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । विदियादि छसु पुढवी असंजदसम्मादिट्ठीवाद पन्थि । सत्तमा पुढवीए रइएस मिच्छादिडीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २० ॥ एदं सुतं वट्टमाणखेत्तपरूवयं, उवरिमसुदेण अदीदाणागदकालविसिखे तपरुवदो । एदस्त परूवणाए खेत्त भंगो । छ चोइस भागा वा देणा ॥ २१ ॥ सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय-वे उच्चियसमुग्वाद गदेहि मिच्छादिट्ठीहि तीदागागद कालेसु चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो | एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । एसो 'वा' सहत्थो । मारणंतिय उववादगदेहि मिच्छादिड्डीहि तीदाणागदकालेसु छ चोदस भागा चिताए जोयणसहस्सेणूण हे डिसचदुहि स्थानवर्ती स्वस्थानादि पांच पदस्थित जीवने और मारणान्तिकदस्थित असंयत सम्यग्दृष्टि जीवने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए । द्वितीयादि छह पृथिवियों में असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है । सातवीं पृथिवी में नारकियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ २० ॥ यह सूत्र वर्तमानकालिक क्षेत्रकी प्ररूपणा करनेवाला है, क्योंकि, आगेके सूत्रद्वारा अतीत अनागत कालविशिष्ट क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है । इसकी अर्थात् वर्तमानकाल के सनक्षेत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकियोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २१ ॥ स्वस्थ नस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कपाय और वैविकिसमुद्धतगत मिथ्याहाट नारकी जीवोंने अतीत और अनागत कालमें सामान्यलोक आदि चार लोकका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईइपिसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर भी कारण पूर्वके समान कहना चाहिए । यही 'वा' शब्दका अर्थ है । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत मिथ्या त्रुटि नारकी जीवोंने अतीत और अनागतकालमें चित्रा पृथिवीके एक १ सप्तम्यां पृथिव्या मिध्यादृष्टिभिलोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १,८. ३ प्रतिषु परुवेयं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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