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________________ १८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं । [१, ४, १६. ण च एदं घडदे, एदम्हि उवदेसे पडिग्गहिदे लोगम्हि तिण्णिसद-तेदालमेत्तघणरज्जूणमणुप्पत्तीदो, 'रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेढीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि ' त्ति परियम्मसुत्तेण सव्वाइरियसम्मदेण विरोहप्पसंगादो च । कदजुम्मेहि अधस्तन भाग पृथक् करके शेष १७९००० योजनके एक राजु लम्बे चौड़े ४९ खंड करें तो प्रत्येक खंड की मोटाई ३६५३४६ योजन प्रमाण होगी जो पूर्वोक्त तिर्यग्लोकके खंडोंकी मोटाईसे लगभग चतुर्थांश पड़ती है । इस प्रकार यह समस्त क्षेत्र तिर्यलोकका संख्यातवां भाग सिद्ध हो जाता है। किन्तु लोक की मृदंगाकार मान्यता के अनुसार उक्त क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग नहीं, किन्तु तिर्यग्लोकसे भी अधिक पड़ जाता है, क्योंकि, यदि एक राजु व्यासवाले गोल तथा एक लाख योजन मोटाईवाले तिर्यग्लोकके पूर्वप्रकार ४२. खंड करें तो प्रत्येक खंड एक राजु व्यासवाला गोल तथा २०४०४९ योजन नोटा होगा। इसी प्रकार वर्तुलाकार लोककी मान्यतासे उक्त मारणान्तिकक्षेत्रके खंड भी एक राजु व्यासवाले गोल तथा ३६५३.३३ योजन मोटे होंगे और उनका समस्त घनफल वर्तुलाकार तिर्यग्लोकके घनफलसे हीन न रहकर अधिक हो जायगा। रा. रा. = उदाहरण (१) आयत चतुरन तिर्यग्लोक १xx ६००००० यो. = १ x १००००० ४ ४९ (२) उक्त मारणान्तिकक्षेत्र १४ १४ १७९००० = १४ १७९.००० (३) वर्तुलाकार तिर्यग्लोक १४३ x १ x १००००० = ३ ४ १००००० - ४९ (४) वर्तुलाकार लोककी मान्यतासे उक्त मारणान्तिकक्षेत्र ३.१७९०००.४९ x ४ ४९१ इस प्रकारके उक्त क्षेत्रों में प्रथम दूसरेसे १७९ = ३१६३ = कुछ कम चौगुना अर्थात् संख्यातगुणा सिद्ध होता है। तथा, चौथा तीसरेसे कुछ कम दुगुणा अर्थात् सातिरेक सिद्ध होता है। किन्तु यह घटित नहीं होता है, क्योंकि, इस उपदेशके स्वीकार करनेपर लोकाकाशमें तीनसौ तेतालीस धनराजुओंकी उत्पत्ति नहीं होती है । दूसरे, ‘राजुको सातसे गुणा करने पर जगश्रेणी होती है, जगश्रेणीको जगश्रेणीसे गुणा करने पर जगप्रतर होता है, और जगप्रतरको जगश्रेणीसे गुणा करने पर घनलोक होता है' इस सर्व आचार्योंसे सम्मत परिकर्म सूत्रसे विरोध भी प्राप्त होता है । पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिय वपर्याप्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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