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________________ १, ४, २.] फोसणाणुगमे मिच्छाइडिफोसणपरूवणं [१४५ विसेसेणेत्ति समाणट्ठो । ओघणिद्देसो आदेसणिदेसो त्ति दुविहो चेव णिदेसो होदि, दब्बपज्जवट्ठियणए अणवलंबिय कहणोवायाभावादो। जदि एवं, तो पमाणवक्कस्स अभावो पसज्जदे इदि वुत्ते, होदु णाम अभावो, गुणप्पहाणभावमंतरेण कहणोवायाभावादो । अधवा, पमाणुप्पाइदं वयणं पमाणवक्कमुवयारेण वुच्चदे । ओघेण मिच्छादिट्टीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, सव्वलोगों ॥२॥ 'जहा उद्देसो तहा णिदेसो ' त्ति णायादो ताव ओघेणेत्ति वयणं । सेसगुणट्ठाणपडिसेहढे मिच्छादिट्ठीहिं त्ति वयणं । केवडियं खेत्तं फोसिदमिदि पुच्छासुत्तं सत्थस्स पमाणत्तपदुप्पायणफलं । खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिटुं खेत्तं पदुप्पादिदं, संपदि पोसणाणिओगद्दारेण किं परूविज्जदे ? चोदस मग्गणट्ठाणाणि अस्सिद्ण सव्वगुणट्ठाणाणं अदीदकालविसेसिदखेत्तं फोसणं वुच्चदे । एत्थ और विशेष ये सब समानार्थक नाम हैं। ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश इस प्रकारसे निर्देश दो ही प्रकारका होता है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयोंके अवलम्बन किये विना वस्तुस्वरूपके कथन करने के उपायका अभाव है। शंका-यदि ऐसा है तो प्रमाणवाक्यका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान - उक्त शंकापर धवलाकार कहते हैं कि भले ही प्रमाणवाक्यका अभाव हो जावे, क्योंकि, गौणता और प्रधानताके विना वस्तुस्वरूपके कथन करनेके उपायका भी अभाव है। अथवा, प्रमाणसे उत्पादित वचनको उपचारसे प्रमाणवाक्य कहते हैं। ओघसे मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ २॥ ... 'जिस प्रकारसे उद्देश होता है, उसी प्रकारसे निर्देश होता है' इस न्यायके अनुसार सूत्रमें पहले 'ओघसे' ऐसा वचन कहा। सासादनादि शेष गुणस्थानों के प्रतिषेध करनेके लिए 'मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा' यह वचन कहा। 'कितना क्षेत्र स्पर्श किया है' यह पृच्छासूत्र शास्त्रके प्रमाणता-प्रतिपादन करनेके लिए कहा गया है। शंका-क्षेत्रानुयोगद्वारमें सर्व मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकर सभी गुणस्थानोंके वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन कर दिया गया है । अब पुनः इस स्पर्शनानुयोगद्वारसे क्या प्ररूपण किया जाता है ? - समाधान-चौदह मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकरके सभी गुणस्थानोंके अतीत (भूत) काल विशिष्ट क्षेत्रको स्पर्शन कहा गया है। (अतएव यहां उसीका प्ररूपण किया जाता है।) .... सामान्येन तावत मिथ्यादृष्टिमिः सर्वलोकः स्पृष्टः। स. सि. १.८, २ प्रतिषु 'ताव ओवं च णामित्ति ति ओषेणेति' इति पार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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