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________________ १, ४, १.] फोसणाणुगमे णिदेसपरूवणं [१५३ मिस्सयभेदेण तिविहं । सचित्ताणं दव्याणं जो संजोओ सो सचित्तदव्बफोसणं । अचित्ताणं दव्याणं जो अण्णोण्णेण संजोओ सो अचित्तदबफोसणं । मिस्सयदव्यफोसणं छण्हं दव्वाणं संजोएण एगूणसट्ठिभेयभिणं । सेसदव्याणमागासेण सह संजोओ खेत्तफोसणं । अमुत्तेण आगासेण सह सेसदव्याणं मुत्ताणममुत्ताणं वा कधं पोसो ? ण एस दोसो, अवगेज्झाव तद्वयतिरिक्तद्रव्यस्पर्शन सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है । जो सचित्त द्रव्योंका संयोग होता है, वह सचित्तद्रव्यस्पर्शन कहलाता है । अचित्त द्रव्योंका जो परस्परमें संयोग होता है, वह अचित्तद्रव्यस्पर्शन कहलाता है। मिश्रद्रव्यस्पर्शन चेतनअचेतनस्वरूप छहों द्रव्योंके संयोगसे उनसठ भेदवाला होता है। विशेषार्थ-किसी विवक्षित राशिके द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंग निकालने के लिए विवक्षित राशिप्रमाणसे लेकर एक एक कम करते हुए एकके अंक तक अंक स्थापित करना चाहिए । पुनः दूसरी पंक्तिमें उनके नीचे एकसे लेकर विवक्षित राशि तक अंक लिखना चाहिए। पहली पंक्तिके अंकोंको अंश या भाज्य और दूसरी पंक्तिके अंकोंको हार या भागहार कहते हैं। यहां पहले भाज्योंके साथ अगले भाज्योंका और पहले भागहारोंके साथ अगले भागहारोंका गुणा करना चाहिए। पुनः भाज्योंके गुणनफलमें भागहारोंके गुणनफलका भाग देना चाहिए जो इस प्रकार प्रमाण आवे, उतने ही विवक्षित स्थानके भंग समझना चाहिए। इस करणसूत्र (गो. कर्मकांड गाथा नं. ७९९) के नियमानुसार छह द्रव्योंके संयोगी भंग इस प्रकार होंगे-द्विसंयोगी-६४५ = १५ । त्रिसंयोगी १०० = २० । चतुःसंयोगी५४५४४४३ = १५ । पंचसंयोगी xxx ३४२= १४२४३४४४५ गीxxx२० २१ इन सब संयोगीभंगोका योग १५+२०+१५+६+२=५७ पस१४२४३४४:५४६ सत्तावन होता है। इन ५७ भंगोंके अतिरिक्त जीवका जीवके साथ, तथा पुद्गल का पुद्गल के साथ, इस प्रकार दो भंग और भी संभय हैं, जिन्हें मिलाकर ५९ संयोगी भंग हो जाते हैं । धर्मास्तिकाय आदि शेष चार द्रव्य अखंड एक एक ही होते हैं, अतः उनके इस प्रकारके एक ही द्रव्यके भीतर संयोगी भंग संभव नहीं हैं। जीव आदि छहों द्रव्योंके पृथक् पृथक् छह भंग और होते हैं, जो असंयोगी (एक संयोगी) होनेसे यहां ग्रहण नहीं किये गये । . शेष द्रव्योंका आकाशद्रव्यके साथ जो संयोग है, वह क्षेत्रस्पर्शन कहलाता है। शंका- अमूर्स आकाशके साथ शेष अमूर्त और मूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे संभव है ? १४२ ६४५४४ - षटस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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