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________________ १, ३, ७९.] खेत्ताणुगमे सम्मत्तमागणाखेत्तपरूवणं [ १३३ तसेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता सादियबंधगा वासपुधत्तंतरेण तसहिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवककमणकालुवलं भादो । एइंदिएसु संचिदअणंतसादियबंधगेहिंतो पदरस्स असंखेज्जदिमागमेत्ता सादियबंधगा तसेसु किण्ण उप्पज्जंति ? ण, सधगुण-मग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि-वओवलंभादो । जेण एइंदिएसु आओ संखेज्जो, तेण तेसिं वएण वि तत्तिएण चेव होदव्यं । तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता त्ति । एवं भवियमग्गणा समत्ता। सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्टि-खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं ॥ ७९ ॥ दयट्ठियपरूवणं पडि विसेसो णत्थि त्ति ओघमिदि वुत्तं । पज्जवट्ठियपरूवणाए वि णत्थि कोइ विसेसो । णबरि खइयसम्मादिट्ठीसु संजदासंजदाणं मणुसपज्जत्तसंजदा समाधान -युक्तिसे। शंका- वह युक्ति कौनसी है ? समाधान-वह युक्ति इस प्रकार है- त्रसजीवों में पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सादिबंधक जीव होते हैं, क्योंकि, वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे त्रसकायकी स्थितिका पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल पाया जाता है। शंका-एकेन्द्रिय जीवों में संचयको प्राप्त अनन्त सादिबंधकोंमेंसे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण सादिबंधक जवि त्रसजीवों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानोंमें आयके अनुसार ही व्यय पाया जाता है। चूंकि, एकेन्द्रियोंमें आयका प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी उतना अर्थात् संख्यात ही होना चाहिए । इसलिए सिद्ध हुआ कि प्रसराशिमें सादिवंधक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं। इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असं. यतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ७९ ॥ . द्रव्यार्थिकनयके प्ररूपण की अपेक्षा सूत्र-प्रतिपादित जीवों के क्षेत्र में कोई विशेषता नहीं है. इसलिए सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा है। पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणामें भी कोई विशेषता नहीं है। केवल क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में संयत संयत गुणस्थानवी जीवोंके मनुष्य . १ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्टयाययोगकेवल्यन्तानxxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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