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________________ १, ३, ३६. ] खेत्ताणुगमे जोगमग्गणाखैत्तपरूवणं [१०७ ओरालियमिस्सकायजोगीसु सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सजोगिकेवली केवडि खेत्ते इदि। सासणसम्मादिट्ठी सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? ओरालियमिस्सम्हि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसासणसम्मादिद्विरासिस्स संभवादो। एत्थ सेसपदाणि णत्थि, तेण तेसिं तत्थ विरोधादो । असंजदसम्माइट्ठी सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे, संखेज्जपरिमाणादो । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो किमटुं ण उत्तो ? ण, ओरालियमिस्सम्हि द्विदाणमोरालियमिस्सकायजोगेसु उववादाभावादो । अधवा उववादो अत्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तओरालियमिस्सजीवाणमभावादो च । सजोगि इसलिए सूत्रके अर्थका इसप्रकार सम्बन्ध होता है- औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सासादन. सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली कितने क्षेत्र में रहते हैं ? स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्रात और कषायसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी राशिका पाया जाना संभव है। यहां पर शेष विहारवत्स्वस्थान आदि पद नहीं होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानके साथ उन पदोंका यहांपर विरोध है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातगत औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि, वे संख्यात राशिप्रमाण होते हैं। शंका-औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपादपद क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगमें स्थित जीवोंका पुनः औदारिकमिश्रकाययोगियों में उपपाद नहीं होता है। अथवा, उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके साथ अक्रमसे उपात्त भव-शरीरके प्रथम समयमें उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, केवलिसमुद्धात और उपपाद इन पांच अवस्थाओंके अतिरिक्त औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंका अभाव है। विशेषार्थ-यहांपर प्रथम तो औदारिकमिश्रकाययोगियोंका औदारिकमिश्रकाययोगियों में उपपादका अभाव बतलाया गया। पुनः, अथवा करके औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें उपपादका सद्भाव भी बतला दिया गया। ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध सी प्रतीत होती हैं । किन्तु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं है। भेद केवल कथन-शैलीका है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-प्रथम जो औदारिकमिश्रकाययोगियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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