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________________ ३० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. त्ति एगट्ठों। लांगलिओ दुविग्गो । गोमुत्तिओ तिविग्गहों । तत्थ मारणंतिएण विणा विग्गहगदीए उप्पण्णाणं उजुगदीए उप्पणपढमसमयओगाहणाए समाणा चेव ओगाहणा भवदि । णवरि दोण्हमोगाहणाणं संठाणे समाणत्तणियमो णत्थि । कुदो ? आणुपुन्विसंठाणणामकम्मेहि जणिदसंठाणाणमेगत्तविरोधा। विग्गहगदीए मारणंतियं कादृणुप्पण्णाणं पढमसमए असंखेज्जजोयणमेत्ता ओगाहणा होदि, पुव्वं पसारिदएग-दो-तिदंडाणं पढमसमए उवसंघाराभावादो। वाची नाम हैं । लांगलिका गति दो विग्रहवाली होती है। और गोमूत्रिका गति तीन विग्रहघाली होती है। इनमेंसे मारणांतिक समुद्धातके विना विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंके ऋजुगतिसे उत्पन्न जीवोंके प्रथम समयमें होनेवाली अवगाहनाके समान ही अवगाहना होती है। विशेषता केवल इतनी है कि दोनों अवगाहनाओंके आकारमें समानता का नियम नहीं है, क्योंकि, आनुपूर्वी नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले और संस्थान नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले संस्थानोंके एकत्वका विरोध है। विशेषार्थ-यहांपर जो आनुपूर्वी और संस्थान नामकर्मसे जनित आकारों में एकत्वका विरोध बताया है उसका अभिप्राय यह है कि विग्रहगतिमें जीवका आकार आनुपूर्वी मामकर्मके उदयसे होता है, क्योंकि, वहांपर संस्थाननामकर्मका उदय नहीं होता हैं। किन्तु ऋजुगतिमें आनुपूर्वी नामकर्मका उदय नहीं है, क्योंकि, आनुपूर्वी नामकर्मका उदय कार्मणकाययोगवाली विग्रहगतिमें ही होता है। ऋजुगतिमें तो कार्मणकाययोग न होकर औदारिकमिश्र या वैक्रियिकमिश्रकाययोग ही होता है और गो. कर्मकांड आदिमें इन दोनों मिश्रयोगों में संस्थान नामकर्मका उदय बताया गया है, आनुपूर्वीका नहीं। इससे सिद्ध है कि ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीवके प्रथम समयमें ही विवक्षित क्षेत्रमें उत्पत्ति हो जानेसे संस्थान नामकर्मका उदय हो जाता है । इसलिए आनुपूर्वी और संस्थान नामकर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले आकार भिन्न ही होंगे, एकसे नहीं। विग्रहगतिमें आनुपूर्वी के उदयसे जीवके पूर्व शरीरका आकार रहता है, किन्तु संस्थाननामकर्मके उदयसे वर्तमान पर्यायका आकार हो जाता है। मारणांतिक समद्धात करके विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंके पहले समय में असंख्यात योजनप्रमाण अवगाहना होती है, क्योंकि, पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दंडोंका प्रथम समयमें संकोच नहीं होता है। १ विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यर्थः। स.सि. २, २७. विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमित्यनन्तरम् त. रा. वा. २, २७. २म प्रत्योः ललिओ' इति पाठः । ३ द्विविग्रहा गतिलोंगलिका । त. रा. वा. २, २८. ४ त्रिविग्रहा गतिर्गोमूत्रिका । त. रा. वा. २, २८. ५ ओघ कम्मे सरगविपत्तेयाहारुरालदुग मिस्सं । उवषादपणविगुव्वदुथीणति-संठाणसंहदी गाथि ॥ गी. क. ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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