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________________ १, ३, २. ] खेत्ताणुगमे समुग्धादपरूवणं [ २७ वा जावुष्पजमाणखेत्तं ताव गंतूण सरीरतिगुणबाहल्लेण अण्णा वा अंतोमुहुत्तमच्छणं । वेदण-कसायसमुग्धादा मारणंतिय समुग्धादे किरण पदंति त्ति वृत्ते ण पदंति । मारणंतियसमुग्धादो नाम बद्धपरभवियाउआणं चेव होदि । वेदण-कसायसमुग्धादा पुण बद्धाउआणमबद्धाउआणं च होंति । मारणंतियसमुग्धादो णिच्छएण उप्पज्जमाणदिसा हिमुहो होदि, ण चेअराण मेगदिसाए गमणणियमो, दससु वि दिसासु गमणे पडिबद्धत्तादो' | मारणंतियसमुग्धादस्स आयामो उकस्सेण अप्पणो उप्पज्ज माणखे तपजवसाणो, ण चेअराणमेस मोति । तेजासरीरसमुग्धादो णाम तेजइयसरीरविउब्वणं । तं दुविहं णिस्सरणपर्यं अणिस्सरणप्पयं चेदि । तत्थ जं तं णिस्सरणप्पगं तेजइयसरीरविउच्त्रणं तं पि दुविहं, ऋजुगतिद्वारा अथवा विग्रहगतिद्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रतक जाकर, शरीर से तिगुणे विस्तार से अथवा अन्यप्रकार से अन्तर्मुहूर्त तक रहनेका नाम मारणान्तिक समुद्धात है । शंका-वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात ये दोनों मारणान्तिकसमुद्धात में अन्तर्भूत क्यों नहीं होते हैं ? समाधान - वेदनास मुद्धात और कषायसमुद्धातका मारणान्तिकसमुद्धात में अन्त. भव नहीं होता है, क्योंकि, जिन्होंने परभवकी आयु बांध ली है, ऐसे जीवोंके ही मारणान्तिकसमुद्धात होता है । किन्तु वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धात, बद्धायुष्क जीवोंके भी होते हैं और अबद्धायुष्क जीवोंके भी होते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात निश्चयले आगे जहां उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रकी दिशा के अभिमुख होता है । किन्तु अन्य समुद्धातोंके इस प्रकार एक दिशामें गमनका नियम नहीं है, क्योंकि, उनका दशों दिशाओंमें भी गमन पाया जाता है । मारणान्तिकसमुद्धातकी लम्बाई उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्र के अन्त तक है, किन्तु इतर समुद्धातों का यह नियम नहीं है । तेजस्कशरीर के विसर्पणका नाम तैजस्कशरीरसमुद्धात है । वह दो प्रकारका होता है, निस्सरणात्मक और अनिस्सरणात्मक | उनमें जो निस्सरणात्मक तैजस्कशरीरविसर्पण है वह १ औपक्रमि कानुपक्रमायुःक्षयाविर्भूतमरणति प्रयोजनो मारणान्तिकसमुद्धतिः । त. रा. वा. १, २०. २ आहारकमारणांतिक मुद्धात वे कविकौ x x शेषाः पंच समुद्धाताः षदिकाः । त. रा. वा. १, २०० आहारमारणंतियदुगं पि नियमेण एगदिसिगं तु । दस दिसिगदा हु सेसा पंच समुग्धादया होंति ॥ गो. जी. ६६९. ३ जीवानुप्रहोपघात प्रवणतेजः शरीरनिर्वर्त नार्थस्तेजः समुद्धातः । त. रा. वा. १, २०० ४ तद् द्विविधं निःसरणात्मकमितरश्च । औदारिकवैक्रियिकाहारकदेहाभ्यंतरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनिःसरणात्मकं । यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रद्धस्य जीवप्रदेशसंपृक्तं बहिर्मिष्क्रम्य दाझं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावकहरितपरिपूर्णस्थालीम शिरिव पचति पक्त्वा च निवर्तते । अथ चिरमवतिष्ठते अभिसद्दार्थो भवति तदेतन्निःसरणात्मकं । त. रा. वा. २, ४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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