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________________ २] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, १. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण यं ॥ १ ॥ किंफलो खेत्ताणिओगद्दारस्स अवयारो ? उच्चदे । तं जहाँ- संताणिओगद्दारादो अत्थित्तेणावगयाणं दवाणिओगद्दारे अवगयपमाणाणं चोद्दसजीवसमासाणं खेत्तपमाणावगमफलो । अधवा अणंतो जीवरासी असंखेज्जपएसिए लोगागासे किं सम्मादि, ण सम्मादि त्ति संदेहेण घुलंतस्स सिस्सस्स संदेहविणासणट्ठो वा खेत्ताणिओगद्दारस्स अवयारो । एत्थ खेत्तं णिक्खिविदव्वं । णिक्खेवो ति किं ? संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितं तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः । अथवा बाह्यार्थविकल्पो निक्षेपः। अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा । उक्तं च अपगयणिवारणहूँ पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणटं तच्चत्थवधारणहूँ च ॥ १ ॥ क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥ शंका-यहां क्षेत्रानुयोगद्वारके अवतारका क्या फल है ? समाधान-उक्त शंकाका उत्तर देते हैं। वह इस प्रकार है-सत्प्ररूपणा नामके अनुयोगद्वारसे जिनका अस्तित्व जान लिया है, तथा द्रव्यानुयोगद्वारमें जिनका संख्यारूप प्रमाण जाना है, ऐसे चौदह जीवसमासोंके (गुणस्थानोंके) क्षेत्रसंबंधी प्रमाणका जानना ही क्षेत्रानु. योगद्वारके अवतारका फल है। अथवा, असंख्यात प्रदेशवाले लोकाकाशमें अनन्त प्रमाणवाली जीवराशि क्या समाती है, या नहीं समाती है, इस प्रकारके संदेहसे घुलनेवाले शिष्यके संदेहके विनाश करनेके लिए इस क्षेत्रानुयोगद्वारका अवतार हुआ है। इस क्षेत्रानुयोगद्वारके प्रारम्भमें क्षेत्रका निक्षेप करना चाहिये । शंका-निक्षेप किसे कहते हैं ? . समाधान-संशय, विपर्यय और अनध्यवसायमें अवस्थित वस्तुको उनसे निकाल. कर जो निश्चयमें क्षेपण करता है, उसे निक्षेप कहते हैं । अथवा, बाहरी पदार्थके विकल्पको निक्षेप कहते हैं, अथवा, अप्रकृतका निराकरण करके प्रकृतका प्ररूपण करनेवाला निक्षेप है। कहा भी है अप्रकृतके निवारण करनेके लिये, प्रकृतके प्ररूपण करनेके लिये, और तत्त्वार्थक अवधारण करनेके लिये निक्षेप किया जाता है ॥१॥ १ क्षेत्रमुच्यते, तत् द्विविधम् । सामान्येन विशेषेण च ॥ स. सि. १, ८. २ म २ प्रतो 'जथा' इति पाठः। ३ उपायो न्यास इष्यते । लघीय. ३, ५२. तदधिगतानी वाच्यतामापन्नानी वाचकेषु भेदोपन्यासोन्यासः । लीय. ३, ७४. विवृत्तिः। ४ स किमर्थः .? अप्रकृतनिराकरणाय प्रकृतनिरूपणाय च । स. सि. १, ५. अप्रस्तुतार्थापाकरणात प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेपः फलवान् । लघीय. स्वो. वि. पृ. २६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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