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________________ १, २, १४.] दबपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपरूवणं [१०१ ५२९६४८। एदेण अत्थपदेण अणेगेहि पयारेहि सजोगिरासी आणेयव्यो। उवसामग-खवगपमाणपरूवणगाहा पंचेव सयसहस्सा होंति सहस्सा तहेव तेत्तीसा । असया चोत्तीसा उवसम-खवगाण केवलिणो ॥ ५५ ॥ एदे सव्वसंजदे एयहे कदे सत्तर-सदकम्मभूमिगदसव्वरिसओ भवंति । तेसिं पमाणं छकोडीओ णवणउइलक्खा णवणउदिसहस्सा णवसय-छण्णउदिमत्तं हवदि । एदस्स वेतिभागा पमत्तसंजदा हवंति। तिभागो अप्पमत्तादिसेससंजदा हवंति। वुत्तं च ___ छक्कादी छक्कंता छण्णवमझा य संजदा सव्वे । तिगभजिदा विगगुणिदापमत्तरासी पमत्ता दु ॥ ५६॥ ६९९९९९९६ । दव्वपमाणेण अवगदचोद्दसगुणट्ठाणाणं अप्पणो इच्छिद-इच्छिदरासिस्स एत्तियो एत्तियो भागो होदि त्ति तेसि भागभागपरूवणा कीरदे। तं जहा- भागादो भागो भागभागो । तं भागभागं वत्तइस्सामो । सव्यजीवरासिं सिद्धतेरसगुणहाणभजिदसव्व इस पद्धतिके अनुसार दूसरे प्रकारसे भी सयोगी जीवोंकी राशि ले आना चाहिये । अब उपशमक और क्षपक जीवोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेवाली गाथा कहते हैं चारों उपशमक, पांचों क्षपक और केवली ये तीनों राशियां मिलकर कुल पांच लाख तेतीस हजार आठसौ चौतीस हैं ॥ ५५॥ विशेषार्थ-ऊपर सयोगिकेवलियोंकी संख्या ५२९६४८ बतला आये हैं । उसमें चारों उपशमकोंकी संख्या ११९६ और पांचों क्षपकों की संख्या २९९० और मिला देने पर तीनोंकी संख्या ५३३८३४ हो जाती है। इन सब संयतोंको एकत्रित करने पर एकसौ सत्तर कर्मभूमिगत संपूर्ण ऋषि होते हैं। उन सबका प्रमाण छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौसौ छयानवे है। इसका दो बेट तीन भाग अर्थात् ४६६६६६६४ जीव प्रमत्तसंयत हैं, और तीसरा भाग अर्थात् २३३३३३३२ जीव अप्रमत्तसंयत आदि शेष संयत हैं। कहा भी है जिस संख्याके आदिमें छह, अन्तमें छह और मध्यमें छहवार नौ हैं, उतने अर्थात् छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ च्यानवे ६९९९९९९६ जीव संपूर्ण संयत हैं। इसमें तीनका भाग देने पर लब्ध आवे उतने अर्थात् २३३३३३३२ जीव अप्रमत्त आदि संपूर्ण संयत हैं और इसे दोसे गुणा करने पर जितनी राशि उत्पन्न हो उतने अर्थात् ४६६६६६६४ जीव प्रमत्तसंयत हैं ॥५६॥ द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा जाने हुए चौदहों गुणस्थानोंका प्रमाण अपनी इच्छित राशिके प्रमाणका इतनावां इतनावां भाग होता है, इसका शान करानेके लिये उनकी भागाभाग प्ररूपणा करते हैं। वह इसप्रकार है-भागसे होनेवाला भाग भागाभाग है। आगे उसी भागाभागको बतलाते है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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