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________________ ३९२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १४० तेण परमलेस्सिया ॥ १४०॥ कथम् ? बन्धहेतुयोगकषायाभावात् । सुगममन्यत् । लेश्यामुखेन जीवपदार्थमभिधाय भव्याभव्यद्वारेण जीवास्तित्वप्रतिपादनार्थमाहभवियाणुवादेण अत्थि भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ॥ १४१॥ भव्याः भविष्यन्तीति सिद्धिर्येषां ते भव्यसिद्धयः। तथा च भव्यसन्ततिच्छेदः स्यादिति चेन्न, तेषामानन्त्यात् । न हि सान्तस्यानन्त्यं विरोधात् । सव्ययस्य निरायस्य राशेः कथमानन्त्यमिति चेन्न, अन्यथैकस्याप्यानन्त्यप्रसङ्गः । सव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति स्वसंख्येयासंख्येयभागव्ययस्य राशेरनन्तस्यापेक्षया तद्विव्या. दिसंख्येयराशिव्ययतो न क्षयोऽपीत्यभ्युपगमात्' । अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनकालस्यानन्तस्यापि तेरहवें गुणस्थानके आगे सभी जीव लेश्यारहित हैं ॥१४० ॥ शंका-यह कैसे? समाधान- क्योंकि, वहांपर बन्धके कारणभूत योग और कषायका अभाव है। शेष कथन सुगम है। लेश्यामार्गणाके द्वारा जीवपदार्थका कथन करके अब भव्याभव्य मार्गणाके द्वारा जीवोंके अस्तित्वके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भवसिद्ध और अभवसिद्ध जीव होते हैं ॥१४१॥ जो आगे सिद्धिको प्राप्त होंगे उन्हें भव्यसिद्ध जीव कहते हैं। शंका-इसप्रकार तो भव्यजीवोंकी संततिका उच्छेद हो जायगा? समाधान नहीं, क्योंकि, भव्यजीव अनन्त होते हैं। हां, जो राशि सान्त होती है उसमें अनन्तपना नहीं बन सकता है, क्योंकि, सान्तको अनन्त माननेमें विरोध आता है। शंका-जिस राशिका निरन्तर व्यय चालू है, परंतु उसमें आय नहीं होती है तो उसके अनन्तपना कैसे बन सकता है ? . समाधान-नहीं, क्योंकि, यदि सव्यय और निराय राशिको भी अनन्त न माना जावे तो एकको भी अनन्तके माननेका प्रसंग आ जायगा। व्यय होते हुए भी अनन्तका क्षय नहीं होता है, यह एकान्त नियम है, इसलिये जिसके संख्यातवें और असंख्यातवें भागका व्यय हो रहा है ऐसी राशिका, अनन्तकी अपेक्षा उसकी दो तीन आदि संख्यात राशिके व्यय होनेसे भी क्षय नहीं होता है, ऐसा स्वीकार किया है। शंका- अर्धपुद्गलपरिवर्तनरूप काल अनन्त होते हुए भी उसका क्षय देखा जाता है, १ अलेश्याः अयोगकेवलिनः । स. सि. १. ८. २ एवं भव्वुच्छेओ कोठागारस्स वा अवचयति ति । तं नाणंतत्तणओऽणागयकालंबराणं व ॥ जं चातीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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