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________________ २२८) छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १, ३०. तिरिक्खा मिस्सा सण्णि-मिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ॥ ३०॥ संज्ञिमिथ्यादृष्टिप्रभृति यावत्संयतासंयतास्तावत्तिर्यञ्चो मिश्राः । न तिरश्चामन्यैः सह मिश्रणमवगम्यते, कथं ? न तावत्संयोगोऽस्यार्थः तस्योपरितनगुणेष्वपि सत्त्वात् । नैकत्वापनिरर्थः द्वयोरेकस्याभावतो द्वित्वादिनिवन्धनमिश्रतानुपपत्तरिति । न प्रथमविकल्पोऽनभ्युपगमात् । न द्वितीयविकल्पोक्तदोषोऽपि गुणकृतसादृश्यमाश्रित्य तिरश्वां मनुष्यगतिजीवैर्मिश्रभावाभ्युपगमात् । तद्यथा, मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिगुणैर्गतित्रयगतजीवसाम्यात्तैस्ते मिश्राः, संयमासंयमगुणेन मनुष्यैः सह साम्यात्तिर्यञ्चो मनुष्यैः सहैकत्वमापन्ना इति ततो न दोषः । स्यान्मतं, गतिनिरूपणायामियन्तो गुणाः अस्यां गतौ सन्ति न सन्तीति निरूपणयैवमवसीयतेऽस्याः संशी-पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत-गुणस्थानतक तिर्यंच मिश्र होते हैं ॥३०॥ संज्ञी-मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक तिर्यंच मिश्र हैं। शंका-तिर्यंचोंका किसी भी गतिवाले जीवोंके साथ मिश्रण समझमें नहीं आता, क्योंकि, इस मिश्रणका अर्थ संयोग तो हो नहीं सकता है ? यदि मिश्रण का अर्थ अन्य गतिवाले जीवोंके साथ संयोग ही लिया जाय, तो ऐसा संयोग तो छटवें आदि ऊपरके गुणस्थानों में भी पाया जाता है । और दो वस्तुओंका एकरूप हो जाना भी इस मिश्रणका अर्थ नहीं हो सकता है ? यदि मिश्रणका अर्थ दो वस्तुओंका एकरूप दो जाना ही माना जाय, तो जब भिन्न भिन्न सत्तावाले दो पदार्थ एकरूप होंगे, तब दो से किसी एकका अभाव हो जानेसे द्वित्वादिके निमित्तसे पैदा होनेवाली मिश्रता नहीं बन सकती है ? समाधान-प्रथम विकल्पसंबन्धी दोष तो यहां पर लागू हो नहीं सकता, क्योंकि, यहां पर मिश्र शब्दका अर्थ दो पदार्थोंके संयोगरूप स्वीकार नहीं किया है। उसीतरह दूसरे विकल्पमें दिया गया दोष भी यहां पर लागू नहीं होता है, क्योंकि, यहां पर गुणकृत सामनताकी अपेक्षा तिर्यंचोंका मनुष्यगतिके जीवोंके साथ मिश्रभाव स्वीकार किया है। आगे इसीको स्पष्ट करते हैं तिर्यचोंकी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और असंयतसम्यग्दृष्टि. रूप गुणों की अपेक्षा तो तीन गतिमें रहनेवाले जीवोंके साथ समानता है, इसलिये तीन गतिवाले जीवोंके साथ तिर्यंच जीव चौथे गुणस्थानतक मिश्र कहलाते हैं। और संयमासंयम गुणकी अपेक्षा तिर्यंचोंकी मनुष्योंके साथ समानता होनेसे तिर्यच मनुष्योंके साथ एकत्वको प्राप्त हुए। इसलिये पांचवें गुणस्थानतक मनुष्योंके साथ तिथचोंको मिश्र कहने में पूर्वोक्त दोष नहीं आता है। शंका गति-मार्गणाकी प्ररूपणा करने पर 'इस गतिमें इतने गुणस्थान होते हैं, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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